• हिन्दू धर्म

    पिछले लगभग 20 हजार वर्षों से हिन्दू धर्म विद्यमान हैं। हो सकता है कि इससे भी ज्यादा वर्ष हो गए हो, लेकिन ब्रह्मा से लेकर राम तक लगभग 400 पीढ़ियां बीत चुकी है और भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था। कुश से अब तक कुल 309 पीढ़ियां हो चुकी है।

  • संस्कार और कर्तव्य

    हिन्दू धर्म ने मनुष्य की हर हरकत को वैज्ञानिक नियम में बांधा है। यह नियम सभ्य समाज की पहचान है। इसके लिए प्रमुख कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जिसको अपनाकर जीवन को सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है।

  • प्रकृति से निकटता

    अक्सर हिन्दू धर्म की इस बात के लिए आलोचना होती है कि यह प्रकृ‍ति पूजकों का धर्म है। ईश्वर को छोड़कर ग्रह और नक्षत्रों की पूजा करता है। यह तो जाहिलानापन है। दरअसल, हिन्दू मानते हैं कि कंकर-कंकर में शंकर है अर्थात प्रत्येक कण में ईश्वर है।

Monday, 26 April 2021

क्या आप जानते है ऋषि कितने प्रकार के होते है ?

 


भारतीय ऋषियों और मुनियों ने ही इस धरती पर धर्म, समाज, नगर, ज्ञान, विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, वास्तु, योग आदि ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। दुनिया के सभी धर्म और विज्ञान के हर क्षेत्र को भारतीय ऋषियों का ऋणी होना चाहिए। उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए। उन्होंने मानव मात्र के लिए ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी, समुद्र, नदी, पहाड़ और वृक्षों सभी के बारे में सोचा और सभी के सुरक्षित जीवन के लिए कार्य किया। आओ, जानते हैं कि कितने प्रकार के होते हैं ऋषि।

ऋषियों की संख्‍या सात ही क्यों? - रत्नकोष में भी कहा गया है-

।।सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।
कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:।।


अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं। आओ अब जानते हैं इनके शाब्दिक अर्थ।
  1. ब्रह्मर्षि : जो ब्रह्म (ईश्वर) को जान गया। दधीचि, भारद्वाज, भृगु, वसिष्ठ जैसे ऋषियों को ब्रह्म ऋषि कहा जाता है।
  2. देवर्षि : देवताओं के ऋषि यो वह देव जो ऋषि है। नारद और कण्व जैसे ऋषियों को देवर्षि कहा जाता है।
  3. महर्षि : महान ऋषि या संत। अगस्त्य, वाल्मीकि या वेद व्यास जैसे ऋषियों को महर्षि कहा जाता है।
  4. परमर्षि : सर्वश्रेष्ठ श्रृषि। भेल जैसे ऋषियों को परमर्षि कहा जाता है।
  5. काण्डर्षि : वेद की किसी एक शाखा, काण्ड या विद्या की व्याख्या करने वाले। जैमिनि जैसे ऋषियों को काण्ड ऋषि कहा जाता है।
  6. श्रुतर्षि : जो ऋषि श्रुति और स्मृति शास्त्र में पारंगत हो। सुश्रुत जैसे ऋषियों को श्रुतर्षि कहा जाता है।
  7. राजर्षि : राजा का ऋषि या वह राजा जो ऋषि बन गया। विश्वामित्र, राजा जनक और ऋतुपर्ण जैसे ऋषियों को राजर्षि कहा जाता है।
अमर कोष अन्य प्रकार के संतों, संन्यासी, परिव्राजक, तपस्वी, मुनि, ब्रह्मचारी, यती इत्यादि से ऋषियों को अलग करता है।

जानिये क्यों रावण के भाई ने रावण के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया था !!

 


राक्षसराज रावण महापंडित था। उसकी विशाल सेना थी और उसने कई युद्ध लड़े थे। भगवान राम ने उसका वध कर दिया था। महर्षि विश्रवा को असुर कन्या कैकसी के संयोग से तीन पुत्र हुए- रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण। विभीषण विश्रवा के सबसे छोटे पुत्र थे। विभीषण बचपन से ही धर्मपरायण और भगवान का भक्त था। विभीषण की पत्नी का नाम सरमा और उसकी बेटी का नाम त्रिजटा था।

रावण ने जब सीता जी का हरण किया, तब विभीषण पराई स्त्री के हरण को महापाप बताते हुए सीता जी को श्री राम को लौटा देने की सलाह दे कर हमेशा धर्म की शिक्षा देता था लेकिन रावण उसकी एक नहीं सुनता था। अंत में रावण ने उसे लंका से निकाल दिया।

हनुमानजी सीता की खोज करते हुए लंका में आए। उन्होंने श्री रामनाम से अंकित विभीषण का घर देखा। घर के चारों ओर तुलसी के वृक्ष लगे हुए थे। सूर्योदय के पूर्व का समय था, उसी समय श्री राम-नाम का स्मरण करते हुए विभीषण जी की निद्रा भंग हुईं। राक्षसों के नगर में श्री रामभक्त को देखकर हनुमान जी को आश्चर्य हुआ। दो रामभक्तों का परस्पर मिलन हुआ। हनुमानजी ने उनसे पता पूछकर अशोकवाटिका में माता सीता का दर्शन किया।

रावण के निकाले जाने के बाद विभीषण के पास और कोई चारा नहीं था। वे प्रभु श्री राम की शरण में चले गए। वे चाहते थे कि निर्दोष लंकावासी न मारे जाएं और लंका में न्याय का राज्य स्थापित हो। विभीषण के शरण याचना करने पर सुग्रीव ने श्रीराम से उसे शत्रु का भाई व दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और उसे पकड़कर दंड देने का सुझाव दिया। हनुमानजी ने उन्हें दुष्ट की बजाय शिष्ट बताकर शरणागति देने की वकालत की। इस पर श्रीरामजी ने विभीषण को शरणागति न देने के सुग्रीव के प्रस्ताव को अनुचित बताया और हनुमानजी से कहा कि आपका विभीषण को शरण देना तो ठीक है किंतु उसे शिष्ट समझना ठीक नहीं है।

इस पर श्री हनुमानजी ने कहा कि तुम लोग विभीषण को ही देखकर अपना विचार प्रकट कर रहे हो मेरी ओर से भी तो देखो, मैं क्यों और क्या चाहता हूं...। फिर कुछ देर हनुमानजी ने रुककर कहा- जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है- 'मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।'

विभीषण का एक गुप्तचर था, जिसका नाम 'अनल' था। उसने पक्षी का रूप धारण कर लंका जाकर रावण की रक्षा व्यवस्था तथा सैन्य शक्ति का पता लगाया और इसकी सूचना भगवान श्रीराम को दी थी। विभिषण ने ही राम को कुंभकर्ण, मेघनाद और रावण की मृत्यु का रहस्य बताया था।

भगवान श्री राम ने विभीषण को लंका का नरेश बनाया और अजर-अमर होने का वरदान दिया। विभीषण जी सप्त चिरंजीवियों में एक हैं और अभी तक विद्यमान हैं। विभीषण को भी हनुमानजी की तरह चिरंजीवी होने का वरदान मिला है। वे भी आज सशरीर जीवित हैं।

क्या आप जानते है अश्वत्थामा कौन था और महाभारत की लड़ाई में कैसे जीवित बच गए थे ?

 


अश्वत्थामा कौन थे? - अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे। उनकी गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र व कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे। द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या में पारंगत बनाया था। महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा।

अश्वत्थामा भी अपने पिता की भाँति शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत के युद्ध के दौरान पांडवों की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था। पांडव सेना को हतोत्साहित देख श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए युधिष्ठिर से कूटनीति का सहारा लेने को कहा।

इस योजना के तहत युद्धभूमि में यह बात फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया है। जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा' (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी)। यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर किंकर्तव्यविमूढ़ युद्धभमि में बैठ गए और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।

पिता की मत्यु ने अश्वत्थामा को विचलित कर दिया। महाभारत युद्ध के पश्चात जब अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया तथा पांडव वंश के समूल नाश के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मारने के लिए ब्रहास्त्र चलाया, तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया और युगों-युगों तक भटकते रहने का शाप दिया था।

कहा जाता है कि असीरगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश के ही जबलपुर शहर के 'गौरीघाट' (नर्मदा नदी) के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की माँग भी करते हैं।

जन्म का रहस्य : अश्‍वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्‍ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही संपन्न परिवार से थे।

जन्म लेते ही अश्‍वत्थामा ने उच्चैःश्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया, जो सभी दिशाओं और व्योम में गुंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्‍वत्थामा होगा:-

अलभत गौतमी पुत्रमश्‍वत्थामानमेव च।
स जात मात्रो व्यनदद्‍ यथैवोच्चैः श्रवा हयः।।47।।
तच्छुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्।
अश्‍वस्येवास्य यत् स्थाम नदतः प्रदिशो गतम्।।48।।
अश्‍वत्थामैव बाल्तोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति।
सुतेन तेन सुप्रीतो भरद्वाजस्ततोऽभवत्।।49।।

बदल गया द्रोण का जीवन : अश्‍वत्थामा के जन्म के बाद द्रोण की आर्थिक स्थिति गिरती गई। घर में कुछ भी खाने को नहीं बचा। विपन्नता आ गई। इस विपन्नता को दूर करने के लिए द्रोण परशुरामजी से विद्या प्राप्‍त करने उनके आश्रम गए। द्रोण आश्रम से लौटे तो घर में गाय तक न थी। अन्य ऋषि कुमारों को दूध पीते देख अश्‍वत्थामा दूध हेतु रोता था और एक दिन द्रोण ने देखा कि ऋषि कुमार चावल के आटे का घोल बनाकर अश्‍वत्थामा को पिला चुके हैं और अबोध बालक (अश्‍वत्‍थामा) 'मैंने दूध पी लिया' यह कहते हुए आनंदित हो रहा है। यह देख द्रोण स्वयं को धिक्कार उठे।

इससे यह सिद्ध होता है कि अश्‍वत्‍थामा ने अपना बचपन जैसे-तैसे खा-पीकर बिताया। उनके लिए घर में पीने को दूध तक नहीं होता था। लेकिन जब वे अपने मित्रों के बीच रहते थे तो झूठ ही कह देते थे कि मैंने तो दूध लिया।

पिता का अपमान : पिता ने जब बालक अश्‍वत्थामा की यह अवस्था देखी तो उन्होंने खुद को इसका दोषी माना और वे उसके लिए गाय की व्यवस्था हेतु स्थान-स्थान पर घूमकर धर्मयुक्त दान के लिए भटके लेकिन उन्हें कोई भी गाय दान में नहीं मिली। अंत में उन्होंने सोचा कि क्यों न अपने बचपन के मित्र राजा द्रुपद के पास जाया जाए।

वे अपने पुत्र अश्‍वत्थामा के साथ राजा द्रुपद के दरबार में जा पहुंचे। राजा द्रुपद की राजसभा में पिता की अवमानना बालक अश्‍वत्थामा ने देखी थी और देखी होगी उनकी विवशता और क्रूर विडंबना कि शस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता भी सत्तासीन मदमत्त व्यक्ति द्वारा अपमानित होते हैं। अश्‍वत्थामा के बाल मन पर उस वक्त क्या गुजरी होगी, जब उनके पिता को वहां से धक्के मारकर निकाल दिया गया।

अश्वत्थामा बने शिक्षक और राजा : अश्‍वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गए और वहां वे कुरु कुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। वहां पर वे कृप शास्त्र की शिक्षा देते थे। अश्‍वत्थामा भी पिता के इस कार्य में मदद करने लगे। वे भी कुरुओं को बाण विद्या सिखाते थे।

बाद में द्रोण कौरवों के आचार्य बन गए। उन्होंने दुर्योधन सहित अर्जुन आदि को शिक्षा दी। आचार्य के प्रति उदारता दिखाते हुए पांडवों ने गुरु दक्षिणा में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया और आधे को उन्होंने अश्‍वत्‍थामा को दे दिया था। उत्तर पाञ्चाल का आधा राज्‍य लेकर अश्‍वत्‍थामा वहां के राजा बन गए और उन्होंने अपने राज्य की राजधानी अहिच्‍छ्त्र को बनाया। अब द्रोण भारतभर के सबसे श्रेष्‍ठ आचार्य थे। कुरु राज्‍य में उन्‍हें भीष्‍म, धृतराष्‍ट्र, विदुर आदि से पूर्ण सम्‍मान प्राप्‍त था, अतः अभावों के दिन विदा हो गए थे।

संपूर्ण विद्याओं में पारंगत अश्‍वत्थामा : अश्‍वत्थामा जीवन के संघर्ष की आग में तपकर सोना बना था। महान पिता द्रोणाचार्य से उन्होंने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। द्रोण ने अश्‍वत्थामा को धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिए थे। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि सभी उसने सिद्ध कर लिए थे। वह भी द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उससे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे। नारायणास्त्र एक ऐसा अस्त्र था

जिसका ज्ञान द्रोण के अलावा माभारत के अन्य किसी योद्धा को नहीं था। यह बहु‍त ही भयंकर अस्त्र था।
अश्‍वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुद्धिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं था। दोनों पक्षों के महारथी उसकी शक्ति से परिचित थे। महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्‍वत्थामा के बल, बुद्धि व शील के प्रशंसक थे।

भीष्मजी रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्‍वत्थामा के बारे में उनकी प्रशंसा करते हैं किंतु वे अश्‍वत्थामा के दुर्गुण भी बताते हैं। उनके जैसा निर्भीक योद्धा कौरव पक्ष में और कोई नहीं था।

जानिये क्यों बजरंगबली के भक्तों से नाराज नहीं होते शनिदेव !!

 


हनुमान जी की पूजा आराधना करने से शनिदेव शांत हो जाते हैं और बजरंगबली के भक्तों को शनिदेव कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। शनिवार-मंगलवार को हनुमान जी की पूजा के साथ ही हनुमान चालीसा का पाठ करने से भी शनिदेव प्रसन्न होते हैं।

स्कंद पुराण के अनुसार, मंगलवार के दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था, इस कारण मंगलवार का दिन उनकी पूजा के लिए समर्पित कर दिया गया। इस दिन विधि विधान के साथ हनुमान जी की पूजा करने से वे जल्द प्रसन्न होते हैं और श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनाएं पूरी कर, उन्हें हर संकट से बचा लेते हैं। लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि शनिवार-मंगलवार को हनुमान जी की पूजा करने से सिर्फ हनुमान जी ही नहीं बल्कि शनिदेव भी प्रसन्न होते हैं और उनका प्रकोप भी कम हो जाता है।

हनुमान चालीसा का पाठ करने से धन की नहीं होगी कमी
हनुमान जी के भक्तों पर शनिदेव भी अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं। हर शनिवार-मंगलवार को हनुमान जी की पूजा करने और हनुमान चालीसा का पाठ करने से शनिदेव तो प्रसन्न होते ही हैं, साथ ही जीवन में आर्थिक संपन्नता भी बनी रहती है। हनुमानजी को बल, बुद्धि और निर्भयता का प्रतीक माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार अगर किसी भी संकट या परेशानी के समय हनुमान जी को याद किया जाए तो वह हर विपदा को हर लेते हैं। यही कारण है कि हनुमान जी को संकटमोचन कहा जाता है।

क्यों हनुमान जी की पूजा से शांत रहते हैं शनिदेव?
हनुमान जी की शिव जी का अवतार माना जाता है। ऐसे में यह सवाल आपके मन में भी जरूर होगा कि आखिर हनुमान जी की पूजा से क्यों शांत रहते हैं शनिदेव। तो इस सवाल के जवाब के पीछे है एक पौराणिक कथा। जब हनुमान जी माता सीता को ढूंढने लंका पहुंचे थे, जहां उनकी नजर शनिदेव पर पड़ी। हनुमान ने शनिदेव से लंका में होने का कारण पूछा तो शनिदेव ने बताया कि रावण ने अपने योग बल से उन्हें कैद कर रखा है। यह सुनकर हनुमान जी ने शनिदेव को रावण की कैद से आजाद कराया। इससे प्रसन्न होकर शनि देव ने हनुमान को वरदान मांगने को कहा। तब बजरंगबली ने कहा कि कलियुग में मेरी पूजा और आराधना करने वाले और मेरी भक्ति करने वाले को आप कभी अशुभ फल नहीं देंगे। इसलिए हनुमान जी की पूजा करने से भी शनिदेव की कृपा प्राप्त होती है।

शनिवार-मंगलवार को ऐसे करें हनुमान जी की पूजा
सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करें, फिर लाल वस्‍त्र पहनें और हाथ में जल लेकर हनुमान जी की मूर्ति या चित्र के सामने व्रत का संकल्प करें। अब हनुमान जी के सामने घी का दीपक जलाएं और फूल माला अर्पित करें। रुई में चमेली का तेल लेकर उनके सामने रखें। फिर व्रत कथा का पाठ करें, फिर हनुमान चालीसा और सुंदर कांड का पाठ करें। आखिर में आरती करके भोग लगाएं।शनिवार-मंगलवार के दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करें। इस दिन शाम को भी शुद्धता के साथ हनुमान जी की पूजा करें और उनके सामने दीपक जलाकर आरती करें।

क्या वास्तव में प्रभु श्री राम की उम्र 11000 वर्ष थी ?

 


शोध कुछ और कहते हैं और ग्रंथ कुछ और। हम क्या मानें? वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम ने 11000 वर्ष तक अयोध्या में राज किया था। परंतु क्या बताई गई उम्र सही है या कि कालांतर में वाल्मीकि रामायण में कोई हेरफेर किया गया? सवाल कई है परंतु इसका उत्तर क्या है?

वैदिक युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता: सरोज बाला, अशोक भटनाकर, कुलभूषण मिश्र के शोधानुसार श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व 10 जनवरी को दिन के 12.05 पर भगवान राम का जन्म हुआ था जबकि वाल्मीकि के अनुसार श्रीराम का जन्म चैत्र (मार्च) शुक्ल नवमी तिथि एवं पुनर्वसु नक्षत्र में जब पांच ग्रह अपने उच्च स्थान में थे तब हुआ था। इस प्रकार सूर्य मेष में 10 डिग्री, मंगल मकर में 28 डिग्री, ब्रहस्पति कर्क में 5 डिग्री पर, शुक्र मीन में 27 डिग्री पर एवं शनि तुला राशि में 20 डिग्री पर था। (बाल कांड 18/श्लोक 8, 9)।

शोधकर्ता डॉ. वर्तक पीवी वर्तक के अनुसार ऐसी स्थिति 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही निर्मित हुई थी, लेकिन प्रोफेसर तोबयस के अनुसार जन्म के ग्रहों के विन्यास के आधार पर श्रीराम का जन्म 7130 वर्ष पूर्व अर्थात 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व हुआ था। उनके अनुसार ऐसी आका‍शीय स्थिति तब भी बनी थी। तब 12 बजकर 25 मिनट पर आकाश में ऐसा ही दृष्य था जो कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित है। ज्यातादर शोधकर्ता प्रोफेसर तोबयस के शोध से सहमत हैं। इसका मतलब यह कि राम का जन्म 10 जनवरी को 12 बजकर 25 मिनट पर 5114 ईसा पूर्व हुआ था।

यदि हम शोधकर्ताओं की बात माने तो 5114 ईसा पूर्व श्रीराम के जन्म हुआ था तो इसमें सन् 2021 को जोड़ने से यह पता चलता है कि आज से 7135 हजार वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था तो फिर वे किस तरह 11000 वर्ष तक अयोध्या पर राज कर सकते थे?

भगवान श्रीकृष्‍ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था अर्थात इसमें सन् 2021 जोड़ते हैं तो 5133 हजार वर्ष आता है। अर्थात 5 हजार 133 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण हुए थे। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। हाल ही में 25 दिसंबर 2020 को 5157वीं गीता जयंती वर्ष मनाया गया। श्रीकृष्‍ण के जन्म के बारे में कोई मतभेद नहीं है। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में रघुवंशी शल्य ने कौरवों की ओर से लड़ाई लड़ी थी जो नकुल और सहदेव के मामा थे। कहते है कि वे श्रीराम के पुत्र कुश की 50वीं पीढ़ी में हुए थे। यदि यह बात सही है तो फिर इसकी गणना की जाए तो कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व। इस मान से भी श्रीराम का जन्म वही आज से 7 हजार वर्ष पूर्व का ही निकलता है।

श्रीराम की अब तक के वंशावली क्रम को जोड़ने पर भी यह सिद्ध नहीं होता है कि उन्होंने 11 हजार वर्षों तक राज किया था। यदि ऐसा होता तो वे महाभारत के युद्ध में मौजूद होते और यदि ऐसा नहीं है तो फिर वाल्मीकि रामायण या आधुनिक शोध दोनों ही असत्य हैं। 

तुलसीदास की रामायण पढ़ने पर पता चलता है कि श्रीराम का जब विवाह हुआ था तब उनकी उम्र 27 वर्ष की थी और माता सीता की उम्र 12 वर्ष थी। उन्हें 14 वर्ष का वनवास हुआ। श्रीराम का जब रावण से युद्ध हुआ तो उनकी उम्र लगभग 40 वर्ष की थी और रावण की उम्र लगभग 80 वर्ष की। 84 दिन युद्ध चला और इस बीच में जब मेघनाद मारा गया तो उसके शोक में रावण के आग्रह पर प्रभु श्रीराम ने 7 दिन के लिए युद्ध रोक दिया था। इसी आधार पर आप जान लें कि श्रीराम का उम्र तो उसी अनुसार बढ़ रही थी जिस अनुसार आम लोगों की बढ़ती है। तब वे कैसे और किस तरह 41 की उम्र में अयोध्या लोटकर 11 हजार वर्ष तक जीवित रहे? हमें उनकी उम्र और राज करने की अवधी पर शोध करना चाहिए।

यदि हम युगों की धारणा पर जाएंगे तो फिर इतिहास को तारीखों में नहीं लिख पाएंगे। ऐसे में हमारे ऐतिहासिक महापुरुषों को कल्पित ही समझा जाएगा इसीलिए जरूरी है कि हम इतिहास को इतिहास की तरह समझें और लिखें।

जानिये भगवान श्री राम जी के दरबार एवं उनके परिवार के अद्भुत रहस्य !!

 


विवस्वान (सूर्य) पुत्र वैवस्वत मनु और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के कुल में आगे चलकर भागीरथ, हरिश्चंद्र, सगर, पृथु, रघु आदि कई महान लोग हुए उसके बाद राजा दशरथ हुए। दशरथ की तीन पत्नियां थीं, कौशल्या, सुमित्रा, कैकयी।
  1. कौशल्य की पुत्री शांता और पुत्र राम थे। सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न, कैकयी के पुत्र भरत थे।
  2. राम और लक्ष्मण सहित चारों भाइयों के दो गुरु थे- वशिष्ठ, विश्वामित्र।
  3. राम ने जनक पुत्री सीता से विवाह किया। सीता और राम के दो जुड़वा पुत्र थे लव और कुश।
  4. लक्ष्मण ने जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री उर्मिला से विवाह किया लक्ष्मण से इनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र तथा सोमदा नाम की एक पुत्री उत्पन्न हुई। लक्ष्मण की जितपद्मा और वनमाला नामक दो और पत्नियां थीं।
  5. भारत ने भी कुशध्वज की बेटी मांडवी से विवाह किया। भारत के दो पुत्र थे- तक्ष और पुष्कल।
  6. शत्रुध्न की पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति था जो जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री थीं। मथुरा में शत्रुघ्‍न के पुत्र सुबाहु का तथा दूसरे पुत्र शत्रुघाती का भेलसा (विदिशा) में शासन था।
  7. श्रीराम की दो बहनें भी थी एक शांता और दूसरी कुकबी। कुकबी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती लेकिन शांता के बारे में सभी जानते हैं। भगवान राम की बड़ी बहन का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया, जो महारानी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं। शांता का विवाह महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋंग ऋषि से हुआ। इन ऋंग ऋषि ने ही दशहरथजी का पुत्रेष्टि यज्ञ किया था जिसके चलते राम, लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न का जन्म हुआ था।
  8. राम दरबार में श्रीराम और सीता सिंहासन पर विराजित हैं और उनके एक ओर लक्ष्मण तो दूसरी ओर भरतजी खड़े हैं। नीचे बैठे हुए हनुमानजी और शत्रुघ्न जी हैं।

क्या आप जानते है जरासंध कौन था और उसने 86 राजाओँ को क्यों बंदी बना लिया था

 


कहते हैं कि जरासंध ने अपने पराक्रम से 86 राजाओं को बंदी बना लिया था। बंदी राजाओं को उसने पहाड़ी किले में कैद कर लिया था। यह भी कहा जाता है कि जरासंध 100 राजाओं को बंदी बनाकर किसी विशेष दिन उनकी बलि देना चाहता था जिससे कि वह चक्रवर्ती सम्राट बन सके। ऐसे कई कारण है जिसके चलते जरासंध की पुराणों में बहुत चर्चा होती है।

मगथ सम्राट जरासंध : महाभारत काल के सबसे शक्तिशाली राज्य मगथ का सम्राट था जरासंध। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था। उसके पास सबसे विशाल सेना थी। वह अत्यंत ही क्रूर और अत्याचारी था। हरिवंशपुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था।

जरासंध के मित्र राजा : चेदि के यादव वंशी राजा शिशुपाल को भी जरासंध ने अपना गहरा मित्र बना लिया। जरासंध के कारण पूर्वोत्तर की ओर असम के राजा भगदन्त से भी उसने मित्रता जोड़ रखी थी। मद्र देश के राजा शल्य भी उसका घनिष्ट मित्र था। यवनदेश का राजा कालयवन भी उसका खास मित्र था। कामरूप का राजा दंतवक, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रूक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग कोसल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा भी उसके मित्र थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवन देश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल, नग्नजीत का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा आदि सभी उसके मित्र होने के कारण उसका संपूर्ण भारत पर बहुत ही दबदबा था।

कंस का ससुर था जरासंध : भगवान कृष्ण का मामा था कंस। कंस का ससुर था जरासंध। कंस के वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण को सबसे ज्यादा यदि किसी ने परेशान किया तो वह था जरासंध। कंस ने उसकी दो पुत्रियों 'अस्ति' और 'प्राप्ति' से विवाह किया था।

कालयवन : जरासंध का मित्र था कालयवन। जरासंध ने कालयवन के साथ मिलकर मथुरा पर हमला कर दिया था, तब श्रीकृष्‍ण की युक्ति से यह तय हुआ कि सेना आपस में नहीं लड़ेगी। हम दोनों ही लड़कर फैसला कर लेंगे। कालयवन ये शर्त मान गया, क्योंकि वह जानता था कि मैं शिव के वरदान के कारण अमर हूं। जब वह श्रीकृष्ण को मारने के लिए लपका तो श्रीकृष्ण मैदान छोड़कर भागने लगे। कालयवन भी उनके पीछे भागा और अंतत: श्रीकृष्ण एक गुफा में चले गए।

जरासंध भी गुफा में घुसा, लेकिन उसने वहां एक व्यक्ति को सोए हुए देखा तो उसने समझा कि वे श्रीकृष्ण ही हैं, जो बहाना बनाकर सो रहे हैं। तब उसने सोए हुए व्यक्ति को लात मारकर उठाने का प्रयास किया। वह व्यक्ति मुचुकुन्द था जिसको कि कलयुग के अंत तक सोने का वरदान मिला था और इसी बीच उसे जो भी उठाएगा, वह उसकी क्रोध की अग्नि में मारा जाएगा। मुचुकुन्द ने जब आंख खोली तो सामने कालयवन खड़ा था। मुचुकुन्द ने जब उसकी ओर देखा तो वह भस्म हो गया।

जरासंध का जन्म : मगध के सम्राट बृहद्रथ के दो पत्नियां थीं। जब दोनों से कोई संतान नहीं हुई तो एक दिन वे महात्मा चण्डकौशिक के पास गए और उनको अपनी समस्या बताई। महात्मा चण्डकौशिक ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि ये फल वे अपनी पत्नी को खिला देना, इससे संतान की प्राप्ति होगी।

राजा ने वह फल काटकर अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फल लेते वक्त राजा ने यह नहीं पूछा था कि इसे क्या मैं अपनी दोनों पत्नियों को खिला सकता हूं? फल को खाने से दोनों पत्नियां गर्भवती हो गईं। लेकिन जब गर्भ से शिशु निकला तो वह आधा-आधा था अर्थात आधा पहली रानी के गर्भ से और आधा दूसरी रानी के गर्भ से। दोनों रानियों ने घबराकर उस शिशु के दोनों जीवित टुकड़े को बाहर फिंकवा दिया।

उसी दौरान वहां से एक राक्षसी का गुजरना हुआ। जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तो उसने अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक होते ही वह शिशु दहाड़े मार-मारकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर दोनों रानियां बाहर निकलीं और उस बालक और राक्षसी को देखकर आश्चर्य में पड़ गईं। एक ने उसे गोद में ले लिया। तभी राजा बृहद्रथ भी वहां आ गए और उन्होंने वहां खड़ी उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी ने राजा को सारा किस्सा बता दिया। उस राक्षसी का नाम जरा था। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया, क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने संधित (जोड़ा) था।

जरासंध वध : जरासंध की खासियत यह थी कि वह युद्ध में मरता नहीं था। उसे अक्सर मल्ल युद्ध या द्वंद्व युद्ध लड़ने का शौक था और उसके राज्य में कई अखाड़े थे। वह श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु भी था। श्रीकृष्ण ने जरासंध का वध करने की योजना बनाई। योजना के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन ब्राह्मण के वेष में जरासंध के पास पहुंच गए और उसे कुश्ती के लिए ललकारा। लेकिन जरासंध समझ गया कि ये ब्राह्मण नहीं हैं। तब श्रीकृष्ण ने अपना वास्तविक परिचय दिया। कुछ सोचकर अंत में जरासंध ने भीम से कुश्ती लड़ने का निश्चय किया।

अखाड़े में राजा जरासंध और भीम का युद्ध कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से 13 दिन तक लगातार चलता रहा। इन दिनों में भीम ने जरासंध को जंघा से उखाड़कर कई बार दो टुकड़े कर दिए लेकिन वे टुकड़े हर बार जुड़कर फिर से जीवित हो जाते और जरासंध फिर से युद्ध करने लगा। भीम लगभग थक ही गया था। 14वें दिन श्रीकृष्ण ने एक तिनके को बीच में से तोड़कर उसके दोनों भाग को विपरीत दिशा में फेंक दिया। भीम, श्रीकृष्ण का यह इशारा समझ गए और उन्होंने वहीं किया। उन्होंने जरासंध को दोफाड़ कर उसके एक फाड़ को दूसरे फाड़ की ओर तथा दूसरे फाड़ को पहले फाड़ की दिशा में फेंक दिया। इस तरह जरासंध का अंत हो गया, क्योंकि विपरित दिशा में फेंके जाने से दोनों टुकड़े जुड़ नहीं पाए।

जरासंध का वध होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उसकी कैद से सभी राजाओं को स्वतंत्र कराया और कहा कि राजा युधिष्ठिर चक्रवर्ती पद प्राप्त करने के लिए राजसूय यज्ञ कराना चाहते हैं और आप लोग उनकी सहायता कीजिए। राजाओं ने श्रीकृष्ण की बात मान ली और सभी ने युधिष्ठिर को अपना राजा मान लिया। अंत में जरासंध के पुत्र सहदेव को अभयदान देकर मगध का राजा बना दिया गया।

जरासंध का अखाड़ा : ब‌िहार के राजगृह में अवस्‍थ‌ित है कंस के ससुर जरासंध का अखाड़ा। जरासंध बहुत बलवान था। मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्‍ण के इशारे पर भीम ने उसका वध क‌िया था। राजगृह को 'राजगीर' कहा जाता है। रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने 'गिरिव्रज' नाम से इस नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना कब्जा जमा लिया। वृहद्रथ अपनी शूरता के लिए मशहूर था।

जरासंध की गुफा : सोन भंडार गुफा में आज भी दबा पड़ा है जरासंध का खजाना। इस गुफा में 2 कक्ष बने हुए हैं। ये दोनों कक्ष पत्‍थर की एक चट्टान से बंद हैं। कक्ष सं. 1 माना जाता है कि यह सुरक्षाकर्मियों का कमरा था जबकि दूसरे कक्ष के बारे में मान्‍यता है कि इसमें सम्राट बिम्बिसार का खजाना था। कहा जाता है कि अभी भी बिम्बिसार का खजाना इसी कक्ष में बंद है।

किंवदंतियों के मुताबिक गुफाओं की असाधारण बनावट ही लाखों टन सोने के खजाने की सुरक्षा करती है। इन गुफाओं में छिपे खजाने तक जाने का रास्ता एक बड़े प्राचीन पत्थर के पीछे से होकर जाता है। कुछ का मानना है कि खजाने तक पहुंचने का रास्ता वैभरगिरि पर्वत सागर से होकर सप्तपर्णी गुफाओं तक जाता है, जो सोन भंडार गुफा के दूसरी तरफ तक पहुंचता है।