• हिन्दू धर्म

    पिछले लगभग 20 हजार वर्षों से हिन्दू धर्म विद्यमान हैं। हो सकता है कि इससे भी ज्यादा वर्ष हो गए हो, लेकिन ब्रह्मा से लेकर राम तक लगभग 400 पीढ़ियां बीत चुकी है और भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था। कुश से अब तक कुल 309 पीढ़ियां हो चुकी है।

  • संस्कार और कर्तव्य

    हिन्दू धर्म ने मनुष्य की हर हरकत को वैज्ञानिक नियम में बांधा है। यह नियम सभ्य समाज की पहचान है। इसके लिए प्रमुख कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जिसको अपनाकर जीवन को सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है।

  • प्रकृति से निकटता

    अक्सर हिन्दू धर्म की इस बात के लिए आलोचना होती है कि यह प्रकृ‍ति पूजकों का धर्म है। ईश्वर को छोड़कर ग्रह और नक्षत्रों की पूजा करता है। यह तो जाहिलानापन है। दरअसल, हिन्दू मानते हैं कि कंकर-कंकर में शंकर है अर्थात प्रत्येक कण में ईश्वर है।

Monday, 26 April 2021

क्या आप जानते है ऋषि कितने प्रकार के होते है ?

 


भारतीय ऋषियों और मुनियों ने ही इस धरती पर धर्म, समाज, नगर, ज्ञान, विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, वास्तु, योग आदि ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। दुनिया के सभी धर्म और विज्ञान के हर क्षेत्र को भारतीय ऋषियों का ऋणी होना चाहिए। उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए। उन्होंने मानव मात्र के लिए ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी, समुद्र, नदी, पहाड़ और वृक्षों सभी के बारे में सोचा और सभी के सुरक्षित जीवन के लिए कार्य किया। आओ, जानते हैं कि कितने प्रकार के होते हैं ऋषि।

ऋषियों की संख्‍या सात ही क्यों? - रत्नकोष में भी कहा गया है-

।।सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।
कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:।।


अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं। आओ अब जानते हैं इनके शाब्दिक अर्थ।
  1. ब्रह्मर्षि : जो ब्रह्म (ईश्वर) को जान गया। दधीचि, भारद्वाज, भृगु, वसिष्ठ जैसे ऋषियों को ब्रह्म ऋषि कहा जाता है।
  2. देवर्षि : देवताओं के ऋषि यो वह देव जो ऋषि है। नारद और कण्व जैसे ऋषियों को देवर्षि कहा जाता है।
  3. महर्षि : महान ऋषि या संत। अगस्त्य, वाल्मीकि या वेद व्यास जैसे ऋषियों को महर्षि कहा जाता है।
  4. परमर्षि : सर्वश्रेष्ठ श्रृषि। भेल जैसे ऋषियों को परमर्षि कहा जाता है।
  5. काण्डर्षि : वेद की किसी एक शाखा, काण्ड या विद्या की व्याख्या करने वाले। जैमिनि जैसे ऋषियों को काण्ड ऋषि कहा जाता है।
  6. श्रुतर्षि : जो ऋषि श्रुति और स्मृति शास्त्र में पारंगत हो। सुश्रुत जैसे ऋषियों को श्रुतर्षि कहा जाता है।
  7. राजर्षि : राजा का ऋषि या वह राजा जो ऋषि बन गया। विश्वामित्र, राजा जनक और ऋतुपर्ण जैसे ऋषियों को राजर्षि कहा जाता है।
अमर कोष अन्य प्रकार के संतों, संन्यासी, परिव्राजक, तपस्वी, मुनि, ब्रह्मचारी, यती इत्यादि से ऋषियों को अलग करता है।

जानिये क्यों रावण के भाई ने रावण के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया था !!

 


राक्षसराज रावण महापंडित था। उसकी विशाल सेना थी और उसने कई युद्ध लड़े थे। भगवान राम ने उसका वध कर दिया था। महर्षि विश्रवा को असुर कन्या कैकसी के संयोग से तीन पुत्र हुए- रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण। विभीषण विश्रवा के सबसे छोटे पुत्र थे। विभीषण बचपन से ही धर्मपरायण और भगवान का भक्त था। विभीषण की पत्नी का नाम सरमा और उसकी बेटी का नाम त्रिजटा था।

रावण ने जब सीता जी का हरण किया, तब विभीषण पराई स्त्री के हरण को महापाप बताते हुए सीता जी को श्री राम को लौटा देने की सलाह दे कर हमेशा धर्म की शिक्षा देता था लेकिन रावण उसकी एक नहीं सुनता था। अंत में रावण ने उसे लंका से निकाल दिया।

हनुमानजी सीता की खोज करते हुए लंका में आए। उन्होंने श्री रामनाम से अंकित विभीषण का घर देखा। घर के चारों ओर तुलसी के वृक्ष लगे हुए थे। सूर्योदय के पूर्व का समय था, उसी समय श्री राम-नाम का स्मरण करते हुए विभीषण जी की निद्रा भंग हुईं। राक्षसों के नगर में श्री रामभक्त को देखकर हनुमान जी को आश्चर्य हुआ। दो रामभक्तों का परस्पर मिलन हुआ। हनुमानजी ने उनसे पता पूछकर अशोकवाटिका में माता सीता का दर्शन किया।

रावण के निकाले जाने के बाद विभीषण के पास और कोई चारा नहीं था। वे प्रभु श्री राम की शरण में चले गए। वे चाहते थे कि निर्दोष लंकावासी न मारे जाएं और लंका में न्याय का राज्य स्थापित हो। विभीषण के शरण याचना करने पर सुग्रीव ने श्रीराम से उसे शत्रु का भाई व दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और उसे पकड़कर दंड देने का सुझाव दिया। हनुमानजी ने उन्हें दुष्ट की बजाय शिष्ट बताकर शरणागति देने की वकालत की। इस पर श्रीरामजी ने विभीषण को शरणागति न देने के सुग्रीव के प्रस्ताव को अनुचित बताया और हनुमानजी से कहा कि आपका विभीषण को शरण देना तो ठीक है किंतु उसे शिष्ट समझना ठीक नहीं है।

इस पर श्री हनुमानजी ने कहा कि तुम लोग विभीषण को ही देखकर अपना विचार प्रकट कर रहे हो मेरी ओर से भी तो देखो, मैं क्यों और क्या चाहता हूं...। फिर कुछ देर हनुमानजी ने रुककर कहा- जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है- 'मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।'

विभीषण का एक गुप्तचर था, जिसका नाम 'अनल' था। उसने पक्षी का रूप धारण कर लंका जाकर रावण की रक्षा व्यवस्था तथा सैन्य शक्ति का पता लगाया और इसकी सूचना भगवान श्रीराम को दी थी। विभिषण ने ही राम को कुंभकर्ण, मेघनाद और रावण की मृत्यु का रहस्य बताया था।

भगवान श्री राम ने विभीषण को लंका का नरेश बनाया और अजर-अमर होने का वरदान दिया। विभीषण जी सप्त चिरंजीवियों में एक हैं और अभी तक विद्यमान हैं। विभीषण को भी हनुमानजी की तरह चिरंजीवी होने का वरदान मिला है। वे भी आज सशरीर जीवित हैं।

क्या आप जानते है अश्वत्थामा कौन था और महाभारत की लड़ाई में कैसे जीवित बच गए थे ?

 


अश्वत्थामा कौन थे? - अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे। उनकी गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र व कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे। द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या में पारंगत बनाया था। महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा।

अश्वत्थामा भी अपने पिता की भाँति शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत के युद्ध के दौरान पांडवों की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था। पांडव सेना को हतोत्साहित देख श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए युधिष्ठिर से कूटनीति का सहारा लेने को कहा।

इस योजना के तहत युद्धभूमि में यह बात फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया है। जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा' (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी)। यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर किंकर्तव्यविमूढ़ युद्धभमि में बैठ गए और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।

पिता की मत्यु ने अश्वत्थामा को विचलित कर दिया। महाभारत युद्ध के पश्चात जब अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया तथा पांडव वंश के समूल नाश के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मारने के लिए ब्रहास्त्र चलाया, तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया और युगों-युगों तक भटकते रहने का शाप दिया था।

कहा जाता है कि असीरगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश के ही जबलपुर शहर के 'गौरीघाट' (नर्मदा नदी) के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की माँग भी करते हैं।

जन्म का रहस्य : अश्‍वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्‍ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही संपन्न परिवार से थे।

जन्म लेते ही अश्‍वत्थामा ने उच्चैःश्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया, जो सभी दिशाओं और व्योम में गुंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्‍वत्थामा होगा:-

अलभत गौतमी पुत्रमश्‍वत्थामानमेव च।
स जात मात्रो व्यनदद्‍ यथैवोच्चैः श्रवा हयः।।47।।
तच्छुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्।
अश्‍वस्येवास्य यत् स्थाम नदतः प्रदिशो गतम्।।48।।
अश्‍वत्थामैव बाल्तोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति।
सुतेन तेन सुप्रीतो भरद्वाजस्ततोऽभवत्।।49।।

बदल गया द्रोण का जीवन : अश्‍वत्थामा के जन्म के बाद द्रोण की आर्थिक स्थिति गिरती गई। घर में कुछ भी खाने को नहीं बचा। विपन्नता आ गई। इस विपन्नता को दूर करने के लिए द्रोण परशुरामजी से विद्या प्राप्‍त करने उनके आश्रम गए। द्रोण आश्रम से लौटे तो घर में गाय तक न थी। अन्य ऋषि कुमारों को दूध पीते देख अश्‍वत्थामा दूध हेतु रोता था और एक दिन द्रोण ने देखा कि ऋषि कुमार चावल के आटे का घोल बनाकर अश्‍वत्थामा को पिला चुके हैं और अबोध बालक (अश्‍वत्‍थामा) 'मैंने दूध पी लिया' यह कहते हुए आनंदित हो रहा है। यह देख द्रोण स्वयं को धिक्कार उठे।

इससे यह सिद्ध होता है कि अश्‍वत्‍थामा ने अपना बचपन जैसे-तैसे खा-पीकर बिताया। उनके लिए घर में पीने को दूध तक नहीं होता था। लेकिन जब वे अपने मित्रों के बीच रहते थे तो झूठ ही कह देते थे कि मैंने तो दूध लिया।

पिता का अपमान : पिता ने जब बालक अश्‍वत्थामा की यह अवस्था देखी तो उन्होंने खुद को इसका दोषी माना और वे उसके लिए गाय की व्यवस्था हेतु स्थान-स्थान पर घूमकर धर्मयुक्त दान के लिए भटके लेकिन उन्हें कोई भी गाय दान में नहीं मिली। अंत में उन्होंने सोचा कि क्यों न अपने बचपन के मित्र राजा द्रुपद के पास जाया जाए।

वे अपने पुत्र अश्‍वत्थामा के साथ राजा द्रुपद के दरबार में जा पहुंचे। राजा द्रुपद की राजसभा में पिता की अवमानना बालक अश्‍वत्थामा ने देखी थी और देखी होगी उनकी विवशता और क्रूर विडंबना कि शस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता भी सत्तासीन मदमत्त व्यक्ति द्वारा अपमानित होते हैं। अश्‍वत्थामा के बाल मन पर उस वक्त क्या गुजरी होगी, जब उनके पिता को वहां से धक्के मारकर निकाल दिया गया।

अश्वत्थामा बने शिक्षक और राजा : अश्‍वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गए और वहां वे कुरु कुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। वहां पर वे कृप शास्त्र की शिक्षा देते थे। अश्‍वत्थामा भी पिता के इस कार्य में मदद करने लगे। वे भी कुरुओं को बाण विद्या सिखाते थे।

बाद में द्रोण कौरवों के आचार्य बन गए। उन्होंने दुर्योधन सहित अर्जुन आदि को शिक्षा दी। आचार्य के प्रति उदारता दिखाते हुए पांडवों ने गुरु दक्षिणा में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया और आधे को उन्होंने अश्‍वत्‍थामा को दे दिया था। उत्तर पाञ्चाल का आधा राज्‍य लेकर अश्‍वत्‍थामा वहां के राजा बन गए और उन्होंने अपने राज्य की राजधानी अहिच्‍छ्त्र को बनाया। अब द्रोण भारतभर के सबसे श्रेष्‍ठ आचार्य थे। कुरु राज्‍य में उन्‍हें भीष्‍म, धृतराष्‍ट्र, विदुर आदि से पूर्ण सम्‍मान प्राप्‍त था, अतः अभावों के दिन विदा हो गए थे।

संपूर्ण विद्याओं में पारंगत अश्‍वत्थामा : अश्‍वत्थामा जीवन के संघर्ष की आग में तपकर सोना बना था। महान पिता द्रोणाचार्य से उन्होंने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। द्रोण ने अश्‍वत्थामा को धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिए थे। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि सभी उसने सिद्ध कर लिए थे। वह भी द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उससे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे। नारायणास्त्र एक ऐसा अस्त्र था

जिसका ज्ञान द्रोण के अलावा माभारत के अन्य किसी योद्धा को नहीं था। यह बहु‍त ही भयंकर अस्त्र था।
अश्‍वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुद्धिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं था। दोनों पक्षों के महारथी उसकी शक्ति से परिचित थे। महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्‍वत्थामा के बल, बुद्धि व शील के प्रशंसक थे।

भीष्मजी रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्‍वत्थामा के बारे में उनकी प्रशंसा करते हैं किंतु वे अश्‍वत्थामा के दुर्गुण भी बताते हैं। उनके जैसा निर्भीक योद्धा कौरव पक्ष में और कोई नहीं था।

जानिये क्यों बजरंगबली के भक्तों से नाराज नहीं होते शनिदेव !!

 


हनुमान जी की पूजा आराधना करने से शनिदेव शांत हो जाते हैं और बजरंगबली के भक्तों को शनिदेव कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। शनिवार-मंगलवार को हनुमान जी की पूजा के साथ ही हनुमान चालीसा का पाठ करने से भी शनिदेव प्रसन्न होते हैं।

स्कंद पुराण के अनुसार, मंगलवार के दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था, इस कारण मंगलवार का दिन उनकी पूजा के लिए समर्पित कर दिया गया। इस दिन विधि विधान के साथ हनुमान जी की पूजा करने से वे जल्द प्रसन्न होते हैं और श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनाएं पूरी कर, उन्हें हर संकट से बचा लेते हैं। लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि शनिवार-मंगलवार को हनुमान जी की पूजा करने से सिर्फ हनुमान जी ही नहीं बल्कि शनिदेव भी प्रसन्न होते हैं और उनका प्रकोप भी कम हो जाता है।

हनुमान चालीसा का पाठ करने से धन की नहीं होगी कमी
हनुमान जी के भक्तों पर शनिदेव भी अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं। हर शनिवार-मंगलवार को हनुमान जी की पूजा करने और हनुमान चालीसा का पाठ करने से शनिदेव तो प्रसन्न होते ही हैं, साथ ही जीवन में आर्थिक संपन्नता भी बनी रहती है। हनुमानजी को बल, बुद्धि और निर्भयता का प्रतीक माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार अगर किसी भी संकट या परेशानी के समय हनुमान जी को याद किया जाए तो वह हर विपदा को हर लेते हैं। यही कारण है कि हनुमान जी को संकटमोचन कहा जाता है।

क्यों हनुमान जी की पूजा से शांत रहते हैं शनिदेव?
हनुमान जी की शिव जी का अवतार माना जाता है। ऐसे में यह सवाल आपके मन में भी जरूर होगा कि आखिर हनुमान जी की पूजा से क्यों शांत रहते हैं शनिदेव। तो इस सवाल के जवाब के पीछे है एक पौराणिक कथा। जब हनुमान जी माता सीता को ढूंढने लंका पहुंचे थे, जहां उनकी नजर शनिदेव पर पड़ी। हनुमान ने शनिदेव से लंका में होने का कारण पूछा तो शनिदेव ने बताया कि रावण ने अपने योग बल से उन्हें कैद कर रखा है। यह सुनकर हनुमान जी ने शनिदेव को रावण की कैद से आजाद कराया। इससे प्रसन्न होकर शनि देव ने हनुमान को वरदान मांगने को कहा। तब बजरंगबली ने कहा कि कलियुग में मेरी पूजा और आराधना करने वाले और मेरी भक्ति करने वाले को आप कभी अशुभ फल नहीं देंगे। इसलिए हनुमान जी की पूजा करने से भी शनिदेव की कृपा प्राप्त होती है।

शनिवार-मंगलवार को ऐसे करें हनुमान जी की पूजा
सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करें, फिर लाल वस्‍त्र पहनें और हाथ में जल लेकर हनुमान जी की मूर्ति या चित्र के सामने व्रत का संकल्प करें। अब हनुमान जी के सामने घी का दीपक जलाएं और फूल माला अर्पित करें। रुई में चमेली का तेल लेकर उनके सामने रखें। फिर व्रत कथा का पाठ करें, फिर हनुमान चालीसा और सुंदर कांड का पाठ करें। आखिर में आरती करके भोग लगाएं।शनिवार-मंगलवार के दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करें। इस दिन शाम को भी शुद्धता के साथ हनुमान जी की पूजा करें और उनके सामने दीपक जलाकर आरती करें।

क्या वास्तव में प्रभु श्री राम की उम्र 11000 वर्ष थी ?

 


शोध कुछ और कहते हैं और ग्रंथ कुछ और। हम क्या मानें? वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम ने 11000 वर्ष तक अयोध्या में राज किया था। परंतु क्या बताई गई उम्र सही है या कि कालांतर में वाल्मीकि रामायण में कोई हेरफेर किया गया? सवाल कई है परंतु इसका उत्तर क्या है?

वैदिक युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता: सरोज बाला, अशोक भटनाकर, कुलभूषण मिश्र के शोधानुसार श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व 10 जनवरी को दिन के 12.05 पर भगवान राम का जन्म हुआ था जबकि वाल्मीकि के अनुसार श्रीराम का जन्म चैत्र (मार्च) शुक्ल नवमी तिथि एवं पुनर्वसु नक्षत्र में जब पांच ग्रह अपने उच्च स्थान में थे तब हुआ था। इस प्रकार सूर्य मेष में 10 डिग्री, मंगल मकर में 28 डिग्री, ब्रहस्पति कर्क में 5 डिग्री पर, शुक्र मीन में 27 डिग्री पर एवं शनि तुला राशि में 20 डिग्री पर था। (बाल कांड 18/श्लोक 8, 9)।

शोधकर्ता डॉ. वर्तक पीवी वर्तक के अनुसार ऐसी स्थिति 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही निर्मित हुई थी, लेकिन प्रोफेसर तोबयस के अनुसार जन्म के ग्रहों के विन्यास के आधार पर श्रीराम का जन्म 7130 वर्ष पूर्व अर्थात 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व हुआ था। उनके अनुसार ऐसी आका‍शीय स्थिति तब भी बनी थी। तब 12 बजकर 25 मिनट पर आकाश में ऐसा ही दृष्य था जो कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित है। ज्यातादर शोधकर्ता प्रोफेसर तोबयस के शोध से सहमत हैं। इसका मतलब यह कि राम का जन्म 10 जनवरी को 12 बजकर 25 मिनट पर 5114 ईसा पूर्व हुआ था।

यदि हम शोधकर्ताओं की बात माने तो 5114 ईसा पूर्व श्रीराम के जन्म हुआ था तो इसमें सन् 2021 को जोड़ने से यह पता चलता है कि आज से 7135 हजार वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था तो फिर वे किस तरह 11000 वर्ष तक अयोध्या पर राज कर सकते थे?

भगवान श्रीकृष्‍ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था अर्थात इसमें सन् 2021 जोड़ते हैं तो 5133 हजार वर्ष आता है। अर्थात 5 हजार 133 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण हुए थे। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। हाल ही में 25 दिसंबर 2020 को 5157वीं गीता जयंती वर्ष मनाया गया। श्रीकृष्‍ण के जन्म के बारे में कोई मतभेद नहीं है। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में रघुवंशी शल्य ने कौरवों की ओर से लड़ाई लड़ी थी जो नकुल और सहदेव के मामा थे। कहते है कि वे श्रीराम के पुत्र कुश की 50वीं पीढ़ी में हुए थे। यदि यह बात सही है तो फिर इसकी गणना की जाए तो कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व। इस मान से भी श्रीराम का जन्म वही आज से 7 हजार वर्ष पूर्व का ही निकलता है।

श्रीराम की अब तक के वंशावली क्रम को जोड़ने पर भी यह सिद्ध नहीं होता है कि उन्होंने 11 हजार वर्षों तक राज किया था। यदि ऐसा होता तो वे महाभारत के युद्ध में मौजूद होते और यदि ऐसा नहीं है तो फिर वाल्मीकि रामायण या आधुनिक शोध दोनों ही असत्य हैं। 

तुलसीदास की रामायण पढ़ने पर पता चलता है कि श्रीराम का जब विवाह हुआ था तब उनकी उम्र 27 वर्ष की थी और माता सीता की उम्र 12 वर्ष थी। उन्हें 14 वर्ष का वनवास हुआ। श्रीराम का जब रावण से युद्ध हुआ तो उनकी उम्र लगभग 40 वर्ष की थी और रावण की उम्र लगभग 80 वर्ष की। 84 दिन युद्ध चला और इस बीच में जब मेघनाद मारा गया तो उसके शोक में रावण के आग्रह पर प्रभु श्रीराम ने 7 दिन के लिए युद्ध रोक दिया था। इसी आधार पर आप जान लें कि श्रीराम का उम्र तो उसी अनुसार बढ़ रही थी जिस अनुसार आम लोगों की बढ़ती है। तब वे कैसे और किस तरह 41 की उम्र में अयोध्या लोटकर 11 हजार वर्ष तक जीवित रहे? हमें उनकी उम्र और राज करने की अवधी पर शोध करना चाहिए।

यदि हम युगों की धारणा पर जाएंगे तो फिर इतिहास को तारीखों में नहीं लिख पाएंगे। ऐसे में हमारे ऐतिहासिक महापुरुषों को कल्पित ही समझा जाएगा इसीलिए जरूरी है कि हम इतिहास को इतिहास की तरह समझें और लिखें।

जानिये भगवान श्री राम जी के दरबार एवं उनके परिवार के अद्भुत रहस्य !!

 


विवस्वान (सूर्य) पुत्र वैवस्वत मनु और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के कुल में आगे चलकर भागीरथ, हरिश्चंद्र, सगर, पृथु, रघु आदि कई महान लोग हुए उसके बाद राजा दशरथ हुए। दशरथ की तीन पत्नियां थीं, कौशल्या, सुमित्रा, कैकयी।
  1. कौशल्य की पुत्री शांता और पुत्र राम थे। सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न, कैकयी के पुत्र भरत थे।
  2. राम और लक्ष्मण सहित चारों भाइयों के दो गुरु थे- वशिष्ठ, विश्वामित्र।
  3. राम ने जनक पुत्री सीता से विवाह किया। सीता और राम के दो जुड़वा पुत्र थे लव और कुश।
  4. लक्ष्मण ने जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री उर्मिला से विवाह किया लक्ष्मण से इनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र तथा सोमदा नाम की एक पुत्री उत्पन्न हुई। लक्ष्मण की जितपद्मा और वनमाला नामक दो और पत्नियां थीं।
  5. भारत ने भी कुशध्वज की बेटी मांडवी से विवाह किया। भारत के दो पुत्र थे- तक्ष और पुष्कल।
  6. शत्रुध्न की पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति था जो जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री थीं। मथुरा में शत्रुघ्‍न के पुत्र सुबाहु का तथा दूसरे पुत्र शत्रुघाती का भेलसा (विदिशा) में शासन था।
  7. श्रीराम की दो बहनें भी थी एक शांता और दूसरी कुकबी। कुकबी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती लेकिन शांता के बारे में सभी जानते हैं। भगवान राम की बड़ी बहन का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया, जो महारानी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं। शांता का विवाह महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋंग ऋषि से हुआ। इन ऋंग ऋषि ने ही दशहरथजी का पुत्रेष्टि यज्ञ किया था जिसके चलते राम, लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न का जन्म हुआ था।
  8. राम दरबार में श्रीराम और सीता सिंहासन पर विराजित हैं और उनके एक ओर लक्ष्मण तो दूसरी ओर भरतजी खड़े हैं। नीचे बैठे हुए हनुमानजी और शत्रुघ्न जी हैं।

क्या आप जानते है जरासंध कौन था और उसने 86 राजाओँ को क्यों बंदी बना लिया था

 


कहते हैं कि जरासंध ने अपने पराक्रम से 86 राजाओं को बंदी बना लिया था। बंदी राजाओं को उसने पहाड़ी किले में कैद कर लिया था। यह भी कहा जाता है कि जरासंध 100 राजाओं को बंदी बनाकर किसी विशेष दिन उनकी बलि देना चाहता था जिससे कि वह चक्रवर्ती सम्राट बन सके। ऐसे कई कारण है जिसके चलते जरासंध की पुराणों में बहुत चर्चा होती है।

मगथ सम्राट जरासंध : महाभारत काल के सबसे शक्तिशाली राज्य मगथ का सम्राट था जरासंध। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था। उसके पास सबसे विशाल सेना थी। वह अत्यंत ही क्रूर और अत्याचारी था। हरिवंशपुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था।

जरासंध के मित्र राजा : चेदि के यादव वंशी राजा शिशुपाल को भी जरासंध ने अपना गहरा मित्र बना लिया। जरासंध के कारण पूर्वोत्तर की ओर असम के राजा भगदन्त से भी उसने मित्रता जोड़ रखी थी। मद्र देश के राजा शल्य भी उसका घनिष्ट मित्र था। यवनदेश का राजा कालयवन भी उसका खास मित्र था। कामरूप का राजा दंतवक, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रूक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग कोसल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा भी उसके मित्र थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवन देश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल, नग्नजीत का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा आदि सभी उसके मित्र होने के कारण उसका संपूर्ण भारत पर बहुत ही दबदबा था।

कंस का ससुर था जरासंध : भगवान कृष्ण का मामा था कंस। कंस का ससुर था जरासंध। कंस के वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण को सबसे ज्यादा यदि किसी ने परेशान किया तो वह था जरासंध। कंस ने उसकी दो पुत्रियों 'अस्ति' और 'प्राप्ति' से विवाह किया था।

कालयवन : जरासंध का मित्र था कालयवन। जरासंध ने कालयवन के साथ मिलकर मथुरा पर हमला कर दिया था, तब श्रीकृष्‍ण की युक्ति से यह तय हुआ कि सेना आपस में नहीं लड़ेगी। हम दोनों ही लड़कर फैसला कर लेंगे। कालयवन ये शर्त मान गया, क्योंकि वह जानता था कि मैं शिव के वरदान के कारण अमर हूं। जब वह श्रीकृष्ण को मारने के लिए लपका तो श्रीकृष्ण मैदान छोड़कर भागने लगे। कालयवन भी उनके पीछे भागा और अंतत: श्रीकृष्ण एक गुफा में चले गए।

जरासंध भी गुफा में घुसा, लेकिन उसने वहां एक व्यक्ति को सोए हुए देखा तो उसने समझा कि वे श्रीकृष्ण ही हैं, जो बहाना बनाकर सो रहे हैं। तब उसने सोए हुए व्यक्ति को लात मारकर उठाने का प्रयास किया। वह व्यक्ति मुचुकुन्द था जिसको कि कलयुग के अंत तक सोने का वरदान मिला था और इसी बीच उसे जो भी उठाएगा, वह उसकी क्रोध की अग्नि में मारा जाएगा। मुचुकुन्द ने जब आंख खोली तो सामने कालयवन खड़ा था। मुचुकुन्द ने जब उसकी ओर देखा तो वह भस्म हो गया।

जरासंध का जन्म : मगध के सम्राट बृहद्रथ के दो पत्नियां थीं। जब दोनों से कोई संतान नहीं हुई तो एक दिन वे महात्मा चण्डकौशिक के पास गए और उनको अपनी समस्या बताई। महात्मा चण्डकौशिक ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि ये फल वे अपनी पत्नी को खिला देना, इससे संतान की प्राप्ति होगी।

राजा ने वह फल काटकर अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फल लेते वक्त राजा ने यह नहीं पूछा था कि इसे क्या मैं अपनी दोनों पत्नियों को खिला सकता हूं? फल को खाने से दोनों पत्नियां गर्भवती हो गईं। लेकिन जब गर्भ से शिशु निकला तो वह आधा-आधा था अर्थात आधा पहली रानी के गर्भ से और आधा दूसरी रानी के गर्भ से। दोनों रानियों ने घबराकर उस शिशु के दोनों जीवित टुकड़े को बाहर फिंकवा दिया।

उसी दौरान वहां से एक राक्षसी का गुजरना हुआ। जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तो उसने अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक होते ही वह शिशु दहाड़े मार-मारकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर दोनों रानियां बाहर निकलीं और उस बालक और राक्षसी को देखकर आश्चर्य में पड़ गईं। एक ने उसे गोद में ले लिया। तभी राजा बृहद्रथ भी वहां आ गए और उन्होंने वहां खड़ी उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी ने राजा को सारा किस्सा बता दिया। उस राक्षसी का नाम जरा था। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया, क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने संधित (जोड़ा) था।

जरासंध वध : जरासंध की खासियत यह थी कि वह युद्ध में मरता नहीं था। उसे अक्सर मल्ल युद्ध या द्वंद्व युद्ध लड़ने का शौक था और उसके राज्य में कई अखाड़े थे। वह श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु भी था। श्रीकृष्ण ने जरासंध का वध करने की योजना बनाई। योजना के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन ब्राह्मण के वेष में जरासंध के पास पहुंच गए और उसे कुश्ती के लिए ललकारा। लेकिन जरासंध समझ गया कि ये ब्राह्मण नहीं हैं। तब श्रीकृष्ण ने अपना वास्तविक परिचय दिया। कुछ सोचकर अंत में जरासंध ने भीम से कुश्ती लड़ने का निश्चय किया।

अखाड़े में राजा जरासंध और भीम का युद्ध कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से 13 दिन तक लगातार चलता रहा। इन दिनों में भीम ने जरासंध को जंघा से उखाड़कर कई बार दो टुकड़े कर दिए लेकिन वे टुकड़े हर बार जुड़कर फिर से जीवित हो जाते और जरासंध फिर से युद्ध करने लगा। भीम लगभग थक ही गया था। 14वें दिन श्रीकृष्ण ने एक तिनके को बीच में से तोड़कर उसके दोनों भाग को विपरीत दिशा में फेंक दिया। भीम, श्रीकृष्ण का यह इशारा समझ गए और उन्होंने वहीं किया। उन्होंने जरासंध को दोफाड़ कर उसके एक फाड़ को दूसरे फाड़ की ओर तथा दूसरे फाड़ को पहले फाड़ की दिशा में फेंक दिया। इस तरह जरासंध का अंत हो गया, क्योंकि विपरित दिशा में फेंके जाने से दोनों टुकड़े जुड़ नहीं पाए।

जरासंध का वध होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उसकी कैद से सभी राजाओं को स्वतंत्र कराया और कहा कि राजा युधिष्ठिर चक्रवर्ती पद प्राप्त करने के लिए राजसूय यज्ञ कराना चाहते हैं और आप लोग उनकी सहायता कीजिए। राजाओं ने श्रीकृष्ण की बात मान ली और सभी ने युधिष्ठिर को अपना राजा मान लिया। अंत में जरासंध के पुत्र सहदेव को अभयदान देकर मगध का राजा बना दिया गया।

जरासंध का अखाड़ा : ब‌िहार के राजगृह में अवस्‍थ‌ित है कंस के ससुर जरासंध का अखाड़ा। जरासंध बहुत बलवान था। मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्‍ण के इशारे पर भीम ने उसका वध क‌िया था। राजगृह को 'राजगीर' कहा जाता है। रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने 'गिरिव्रज' नाम से इस नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना कब्जा जमा लिया। वृहद्रथ अपनी शूरता के लिए मशहूर था।

जरासंध की गुफा : सोन भंडार गुफा में आज भी दबा पड़ा है जरासंध का खजाना। इस गुफा में 2 कक्ष बने हुए हैं। ये दोनों कक्ष पत्‍थर की एक चट्टान से बंद हैं। कक्ष सं. 1 माना जाता है कि यह सुरक्षाकर्मियों का कमरा था जबकि दूसरे कक्ष के बारे में मान्‍यता है कि इसमें सम्राट बिम्बिसार का खजाना था। कहा जाता है कि अभी भी बिम्बिसार का खजाना इसी कक्ष में बंद है।

किंवदंतियों के मुताबिक गुफाओं की असाधारण बनावट ही लाखों टन सोने के खजाने की सुरक्षा करती है। इन गुफाओं में छिपे खजाने तक जाने का रास्ता एक बड़े प्राचीन पत्थर के पीछे से होकर जाता है। कुछ का मानना है कि खजाने तक पहुंचने का रास्ता वैभरगिरि पर्वत सागर से होकर सप्तपर्णी गुफाओं तक जाता है, जो सोन भंडार गुफा के दूसरी तरफ तक पहुंचता है।

क्या आप जानते है देवराज इंद्र के जन्म और उनकी पत्नी शची कौन थी ?

 


हिन्दुधर्म में मूलत: 33 प्रमुख देवताओं का उल्लेख मिलता है। सभी देवताओं के कार्य और उनका चरित्र भिन्न भिन्न है। हिन्दू देवताओं में इन्द्र बहुत बदनाम है। इन्द्र के किस्से रोचक है। इन्द्र के जीवन से मनुष्यों को शिक्षा मिलती है कि भोग से योग की ओर कैसे चलें।

इन्द्र बदनाम इसलिए कि वे इन्द्रिय सुखों अर्थात भोग और ऐश्वर्य में ही डुबे रहते हैं और उनको हर समय अपने सिंहासन की ही चिंता सताती रहती है। हर कोई उनका सिंहासन क्यों हथियाना चाहता है? क्योंकि वह स्वर्ग के राजा हैं। देवताओं के अधिपति हैं और उनके दरबार में सुंदर अप्सराएं नृत्य कर और गंधर्व संगीत से उनका मनोरंजन करते हैं। इन्द्र की अपने सौतेले भाइयों से लड़ाई चलती रहती है जिसे पुरणों में देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। देवताओं को सुर इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे सुरापान करते थे और असुर नहीं।

हम जिस इन्द्र की बात कर रहे हैं वह अदिति पुत्र और शचि के पति देवराज हैं। उनसे पहले पांच इन्द्र और हो चुके हैं। इन इन्द्र को सुरेश, सुरेन्द्र, देवेन्द्र, देवेश, शचीपति, वासव, सुरपति, शक्र, पुरंदर भी कहा जाता है। क्रमश: 14 इन्द्र हो चुके हैं:- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि। उपरोक्त में से शचिपति इन्द्र पुरंदर के पूर्व पांच इन्द्र हो चुके हैं।

सुर और असुर : देवताओं के अधिपति इन्द्र, गुरु बृहस्पति और विष्णु परम ईष्ट हैं। दूसरी ओर दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन बने जिनके गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट हैं। एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्‍वकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मयदानव। इन्द्र के भ्राताश्री वरुणदेव देवता और असुर दोनों को प्रिय हैं।

आखिर स्वर्ग कहां है? : आज से लगभग 12-13 हजार वर्षं पूर्व तक संपूर्ण धरती बर्फ से ढंकी हुई थी और बस कुछ ही जगहें रहने लायक बची थी उसमें से एक था देवलोक जिसे इन्द्रलोक और स्वर्गलोक भी कहते थे। यह लोक हिमालय के उत्तर में था। सभी देवता, गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां हिमालय के उत्तर में ही रहती थी।

भारतवर्ष जिसे प्रारंभ में हैमवत् वर्ष कहते थे यहां कुछ ही जगहों पर नगरों का निर्माण हुआ था बाकि संपूर्ण भारतवर्त समुद्र के जल और भयानक जंगलों से भरा पड़ा था, जहां कई अन्य तरह की जातियां प्रजातियां निवास करती थी। सुर और असुर दोनों ही आर्य थे। इसके अलावा नाग, वानर, किरात, रीछ, मल्ल, किन्नर, राक्षस आदि प्रजातियां भी निवास करती थी। उक्त सभी ऋषि कश्यप की संतानें थी।

इन्द्र के भाई : उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी तो निश्‍चित ही तब मेघ और जल दोनों ही तत्व सबसे भयानक माने जाते थे। मेघों के देव इन्द्र थे जो जल के देवता इन्द्र के भाई वरुण थे। दोनों ही दोनों तत्व को संचालित करते थे। इस तरह इन्द्र के और भी भाई थे जिनका नाम क्रमश: विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) था। ये सभी भाई सुर या देव कहलाते थे।

माना जाता है कि इन्द्र के भाई विवस्वान् ही सूर्य नाम से जाने जाते थे और विष्णु इन्द्र के सखा थे। इन्द्र के एक अन्य भ्राता अर्यमा को पितरों का देवता माना जाता है, जबकि भ्राता वरुण को जल का देवता और असुरों का साथ देने वाला माना गया है। इसी तरह विधाता, पूषा, त्वष्टा, भग, सविता, धाता, मित्र और त्रिविक्रम आदि के बारे में वेदों में उल्लेख मिलता है।

इन्द्र के सौतेले भाई : इन्द्र के सौतेले को असुर कहते थे। इन्द्र के सौतेले भाई का नाम हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष था जबकि बहिन का नाम सिंहिका था। हिरण्याक्ष का तो विष्णु ने वराह अवतार लेकर वध कर दिया था जबकि हिरण्यकश्यप का बाद में नृसिंह अवतार लेकर वध कर दिया था। हिरण्यकश्यप के मरने के बाद प्रह्लाद ने सत्ता संभाली। प्रहलाद के बाद उनके पुत्र विरोचन को असुरों का अधिपति बना दिया गया। विरोचन के बाद उसका पुत्र महाबलि असुरों का अधिपति बना।

इन्द्र के माता-पिता : इन्द्र की माता का नाम अदिति था और पिता का नाम कश्यप। इसी तरह इन्द्र के सौतेले भाइयों की माता का नाम दिति और पिता कश्यप थे। ऋषि कश्यप की कई पत्नियां थीं जिसमें से 13 प्रमुख थीं। उन्हीं में से प्रथम अदिति के पुत्र आदित्य कहलाए और द्वितीय दिति के पुत्र दैत्य। आदित्यों को देवता और दैत्यों को असुर भी कहा जाता था। इसके अलावा दनु के 61 पुत्र दानव, अरिष्टा के गंधर्व, सुरसा के राक्षस, कद्रू के नाग आदि कहलाए।

इन्द्र की पत्नी और पुत्र : इन्द्र का विवाह असुरराज पुलोमा की पुत्री शचि के साथ हुआ था। इन्द्र की पत्नी बनने के बाद उन्हें इन्द्राणी कहा जाने लगा। इन्द्राणी के पुत्रों के नाम भी वेदों में मिलते हैं। उनमें से ही दो वसुक्त तथा वृषा ऋषि हुए जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की।

इन्द्र की वेशभूषा और शक्ति : सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वे अपार शक्तिशाली देव हैं। इन्द्र मेघ और बिजली के माध्यम से अपने शत्रुओं पर प्रहार करने की क्षमता रखते थे।

इन्द्र का जन्म : ऋग्वेद के चौथे मंडल के 18वें सूक्त से इन्द्र के जन्म और जीवन का पता चलता है। उनकी माता का नाम अदिति था। कहते हैं कि इन्द्र अपनी मां के गर्भ में बहुत समय तक रहे थे जिससे अदिति को पर्याप्त कष्ट उठाना पड़ा था। लेकिन अधिक समय तक गर्भ में रहने की वजह से ही वे अत्यधिक बलशाली और पराक्रमी हुए। जब इन्द्र ने जन्म लिया, तब कुषवा नामक राक्षसी ने उनको अपना ग्रास बनाने की चेष्टा की थी लेकिन इन्द्र में उन्हें सूतिकागृह में मार डाला।

क्या आप जानते है भगवान शिव ने क्यों किया था तांडव नृत्य ?

 


तांडव शब्द भगवान शिव से जुड़ा हुआ है। ताण्डव का अर्थ होता है उग्र तथा औद्धत्यपूर्ण क्रिया कलाप या स्वच्छंद क्रिया कलाप। ताण्डव (अथवा ताण्डव नृत्य) शंकर भगवान द्वारा किया जाने वाला अलौकिक नृत्य है।

1. तांडव के प्रवर्तक : शास्त्रों के अनुसार शिवजी को ही तांडव नृत्य का प्रवर्तक माना जाता है। परंतु अन्य आगम तथा काव्य ग्रंथों में दुर्गा, गणेश, भैरव, श्रीराम आदि के तांडव का भी उल्लेख मिलता है।

2. तांडव स्त्रोत : रावण ने अपने आराध्य शिव की स्तुति में 'शिव तांडव स्तोत्र' की रचना की थी। इसके अलावा आदि शंकराचार्य रचित दुर्गा तांडव (महिषासुर मर्दिनी संकटा स्तोत्र), गणेश तांडव, भैरव तांडव एवं श्रीभागवतानंद गुरु रचित श्रीराघवेंद्रचरितम् में राम तांडव स्तोत्र भी प्राप्त होता है।

3. तांडव नृत्य : मान्यता है कि रावण के भवन में पूजन के समाप्त होने पर शिवजी ने, महिषासुर को मारने के बाद दुर्गा माता ने, गजमुख की पराजय के बाद गणेशजी ने, ब्रह्मा के पंचम मस्तक के छेदद के बाद आदिभैरव ने तथा रावण के वध के समय प्रभु श्रीराम जी ने तांडव नृत्य किया।

4. तांडव ताल : भारतीय संगीत शास्त्र में चौदह प्रमुख तालभेद में वीर तथा बीभत्स रस के सम्मिश्रण से बना तांडवीय ताल का उल्लेख मिलता है।

5. तांडव वनस्पति : वनस्पति शास्त्र के अनुसार एक प्रकार की घास को भी तांडव कहा गया है।

6. शिव का तांडव नृत्य : कहते हैं कि भगवान शिव दो स्थिति में तांडव नृत्य करते हैं। पहला जब वो क्रोधित होते हैं तब वे बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं। ऐसा में जब शिवजी को क्रोध आता है तो वे तांडव नृत्य करते हैं और जब क्रोध वे ते अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं तो जो भी सामने होता है वह भस्म हो जाता है। परंतु दूसरा जब वे डमरू बजाते हुए तांडव करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि वे आनंदित हैं, प्रकृति में आनंद की बारिश हो रही है। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है।

7. सृष्टि को भस्म करने के लिए तांडव : कुछ का मानना है कि शिव ने तांडव नृत्य कर सृष्टि को भस्म कर दिया था तब सृष्टि की जगह बहुत काल तक यही (महाशिवरात्रि) महारात्रि छाई रही। देवी पार्वती ने इसी रात्रि को शिव की पूजा कर उनसे पुन: सृष्टि रचना की प्रार्थना की इसीलिए इसे शिव की पूजा की रात्रि कहा जाता है। फिर इसी रात्रि को भगवान शंकर ने सृष्टि उत्पत्ति की इच्छा से स्वयं को ज्योतिर्लिंग में परिवर्तित किया।

8. ज्ञान प्राप्ति पर तांडव : यह भी कहा जाता है कि भगवन शिव को जब हिमालय पर ज्ञान प्राप्त हुआ था उस ज्ञान के आनंद में उन्होंने झूमकर नृत्य किया था, जिस नृत्य को बाद में तांडव कहा गया। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे। सर्व प्रथम इन्होंने ही शिवजी का तांडव नृत्य उस वक्त देखा था जब उन्हें (शिवजी को) ज्ञान प्राप्त हुआ था।

9. काली तांडव : शिवजी के साथ माता काली ही उनके जैसा तांडव करने की क्षमता रखती हैं। माता पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया था।

10. शास्त्रीय नृत्य : कहते हैं कि भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला अध्याय लिखने के बाद अपने शिष्यों को तांडव नृत्य का प्रशिक्षण दिया था। वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जिनती भी कला या विद्याएं या नृत्य प्रचलित हैं वह सभी तांडव नृत्य की ही देन हैं। तांडव नृत्य की एक तीव्र शैली है, वहीं इसी लास्य सौम्य शैली भी है। लास्य शैली में वर्तमान में भरतनाट्यम, कुचिपुडी, ओडिसी और कत्थक नृत्य किए जाते हैं जबकि कथकली तांडव नृत्य से प्रेरित है।

क्या आप जानते है हनुमान चालीसा का कितना महत्व है हमारे जीवन में !!

 


हनुमानजी का प्रताप चारों युगों में रहा है और आगे भी रहेगा, क्योंकि वे अजर-अमर हैं। उन्हें अमरत्व का वरदान मिला हुआ है। वे जब तक चाहें शरीर में रहकर इस धरती पर मौजूद रह सकते हैं। सिर्फ इस बात के लिए ही हनुमान चालीसा का आधुनिक दुनिया में महत्व नहीं बढ़ जाता है बल्कि इसलिए कि पूरे ब्रह्मांड में हनुमानजी ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी भक्ति से हर तरह के संकट तुरंत ही हल हो जाते हैं और यह एक चमत्कारिक सत्य है।

हनुमान चालीसा को महान कवि तुलसीदास जी ने लिखा था हनुमान चालीसा से पहले भी हनुमानजी पर कई चालीसा लिखी गई और कई स्तुतियां भी लिखी गई थीं लेकिन हनुमान चालीसा का महत्व इसीलिए आधुनिक युग में है क्योंकि यह पढ़ने और समझने बहुत ही सरल है और यह भी कि इस चालीसा में हनुमानजी के संपूर्ण चरित्र का वर्णन हो जाता है जिससे उनकी भक्ति करने में आसानी होती है।

हनुमानजी की भक्ति के लिए आप कुछ भी पढ़ें लेकिन हनुमान चालीसा सच में ही अपने आप में एक संपूर्ण रामचरि‍त मानस की तरह है। हनुमान चालीसा लिखने वाले तुलसीदासजी राम के बहुत बड़े भक्त थे। उनके इसी विश्वास के कारण औरेंगजेब ने उन्हे बंदी बना लिया था। कहते हैं कि वहीं बैठकर उन्होंने हनुमान चालीसा लिखा था। अंत में ऐसे कुछ हुआ कि औरंगजेब को उन्हें छोड़ना पड़ा था।

इसमें 40 छंद होते हैं जिसके कारण इसको चालीसा कहा जाता है। यदि कोई भी इसका पाठ करता है तो उसे चालीसा पाठ बोला जाता है। आधुनिक युग की भागमभाग में हनुमान चालीसा ही एक ऐसा पाठ है जिसे तुरंत ही आसानी से पढ़ा जा सकता है, लेकिन उसके लिए हनुमानजी की भक्ति होना जरूरी है।

हिंदू धर्म में हनुमान चालीसा का बड़ा ही महत्व है। इस चालीसा को पढ़ते रहने से व्यक्ति के मन में साहस, आत्मविश्वास और पराक्रम का संचार होता है। इसके कारण ही वह संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है।

इसके एक एक छंद का बहुत महत्व है जैसे-

  1. बच्चे का पढ़ाई में मन ना लगे तो उसको इस छंद का पाठ करना चाहिए- बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।
  2. मन में अकारण भय हो तो निम्न पंक्ति पढ़ना चाहिए- भूत पिशाच निकट नहीं आवे महावीर जब नाम सुनावे।
  3. किसी भी कार्य को सिद्ध करना हो तो यह पंक्ति पढ़ें- भीम रूप धरि असुर सँहारे, रामचन्द्र के काज सँवारे।
  4. बहुत समय से यदि बीमार हैं तो यह पंक्ति पढ़ें- नासै रोग हरे सब पीरा, जपत निरन्तर हनुमत बीरा।
  5. प्राणों पर यदि संकट आ गया हो तो यह पंक्ति पढ़ें- संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। या संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै
  6. यदि आप बुरी संगत में पड़े हैं और यह संत छुट नहीं रही है तो यह पढ़ें- महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी
  7. यदि आप किसी भी प्रकार के बंधन में हैं तो- जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बन्दि महा सुख होई।
  8. किसी भी प्रकार का डर है तो यह पढ़ें- सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना।
  9. आपके मन में किसी भी प्रकार की मनोकामना है तो पढ़ें- और मनोरथ जो कोई लावै, सोई अमित जीवन फल पावै।

क्या आप जानते है हनुमान जी ने लंका में प्रवेश करने के बाद कौन कौन से अद्भुत कार्य किए थे ?

 


हनुमानजी को जब लंका जाना था तब जामवंतजी ने उन्हें उनकी शक्तियों से परिचित कराया और वे फिर वायु मार्ग से लंका के लिए निकले। लंका के मार्ग और लंका में उन्होंने कई पराक्रम भरे कार्य किए। आओ जानते हैं उन्हीं में से 9 प्रमुख कार्य।

1. समुद्र लांघना और सुरसा से सामना - हनुमानजी ही जानते थे कि समुद्र को पार करते वक्त बाधाएं आएगी। सबसे पहले समुद्र पार करते समय रास्ते में उनका सामना सुरसा नाम की नागमाता से हुआ जिसने राक्षसी का रूप धारण कर रखा था। सुरसा ने हनुमानजी को रोका और उन्हें खा जाने को कहा। समझाने पर जब वह नहीं मानी, तब हनुमान ने कहा कि अच्छा ठीक है मुझे खा लो। जैसे ही सुरसा उन्हें निगलने के लिए मुंह फैलाने लगी हनुमानजी भी अपने शरीर को बढ़ाने लगे। जैसे-जैसे सुरसा अपना मुंह बढ़ाती जाती, वैसे-वैसे हनुमानजी भी शरीर बढ़ाते जाते। बाद में हनुमान ने अचानक ही अपना शरीर बहुत छोटा कर लिया और सुरसा के मुंह में प्रवेश करके तुरंत ही बाहर निकल आए। हनुमानजी की बुद्धिमानी से सुरसा ने प्रसन्न होकर उनको आशीर्वाद दिया तथा उनकी सफलता की कामना की।

2. राक्षसी माया का वध - समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर अपनी माया से उनको निगल जाती थी। हनुमानजी ने उसका छल जानकर उसका वध कर दिया।

3. विभीषण से मुलाकात - जब हनुमानजी सीता माता को ढूंढते-ढूंढते विभीषण के महल में चले जाते हैं। विभीषण के महल पर वे राम का चिह्न अंकित देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात विभीषण से होती है। विभीषण उनसे उनका परिचय पूछते हैं और वे खुद को रघुनाथ का भक्त बताते हैं। हनुमानजी जान ते हैं कि यह काम का व्यक्ति है। वे विभीषण को श्रीराम से मिलाने का वचन दे देते हैं।

4. सीता माता का शोक निवारण - लंका में घुसते ही उनका सामना लंकिनी और अन्य राक्षसों से हुआ जिनका वध करके वे आगे बढ़े। खोज करते हुए वे अशोक वाटिका पहुंच गए। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में सीता माता से मुलाकात की और उन्हें राम की अंगूठी देकर उनके शोक का निवारण किया।

5. अशोक वाटिका को उजाड़ना - सीता माता से आज्ञा पाकर हनुमानजी बाग में घुस गए और फल खाने लगे। उन्होंने अशोक वाटिका के बहुत से फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहां बहुत से राक्षस रखवाले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने अपनी जान बचाकर रावण के समक्ष उपस्थित होकर उत्पाती वानर की खबर दी।

6. अक्षय कुमार का वध - फिर रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा। वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर हनुमानजी को मारने चला। उसे आते देखकर हनुमानजी ने एक वृक्ष हाथ में लेकर ललकारा और उन्होंने अक्षय कुमार सहित सभी को मारकर बड़े जोर से गर्जना की।

7. मेघनाद से युद्ध - पुत्र अक्षय का वध हो गया, यह सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने अपने बलवान पुत्र मेघनाद को भेजा। उससे कहा कि उस दुष्ट को मारना नहीं, उसे बांध लाना। उस बंदर को देखा जाए कि कहां का है। हनुमानजी ने देखा कि अबकी बार भयानक योद्धा आया है। मेघनाद तुरंत ही समझ गया कि यह कोई मामूली वानर नहीं है। युद्ध में हनुमानजी मूर्छित हो गए हैं, मेघनाद उनको नागपाश से बांधकर ले गया। रावण क्रोधित होकर कहता है- तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? क्या तुझे मेरी शक्ति और महिमा के बारे में पता नहीं है? तब हनुमानजी राम की महिमा का वर्णन करते हैं और उसे अपनी गलती मानकर राम की शरण में जाने की शिक्षा देते हैं।

8. लंकादहन - राम की महिमा सुनकर रावण क्रोधित होकर कहता है कि जिस पूंछ के बल पर यह बैठा है, उसकी इस पूंछ में आग लगा दी जाए। जब बिना पूंछ का यह बंदर अपने प्रभु के पास जाएगा तो प्रभु भी यहां आने की हिम्मत नहीं करेगा। उन्होंने अपना विशालकाय रूप धारण किया और जोर से हंसते हुए रावण के महल को जलाने लगे। देखते ही देखते लंका जलने लगी और लंकावासी भयभीत हो गए।एक विभीषण का घर नहीं जलाया। सारी लंका जलाने के बाद वे समुद्र में कूद पड़े और लौट आए।

9. राम को सीता की खबर देना - पूंछ बुझाकर फिर छोटा-सा रूप धारण कर हनुमानजी माता सीता के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए और उन्होंने उनकी चूड़ामणि निशानी ली और समुद्र लांघकर वे इस पार आए। हनुमानजी ने राम के समक्ष उपस्थित होकर कहा- नाथ! चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि उतारकर दी। श्रीरघुनाथजी ने उसे लेकर हनुमानजी को हृदय से लगा लिया।

क्या आप जानते है महाबली रावण ने भी अद्भुत ग्रंथो की रचना की थी !!

 


राम की गाथा वाल्मीकि रामायण अनुसार रावण महापंडित था। रावण बहुत ही ज्ञानी महापंडित होने के साथ ही ज्योतिष, वास्तु और विज्ञान का ज्ञान भी रखता था। आओ जानते हैं रावण रचित 13 ग्रंथों की सूची।

1.शिव तांडव स्त्रोत : रावण ने अपने आराध्य शिव की स्तुति में 'शिव तांडव स्तोत्र' की रचना की थी।
2.रावण संहिता : रावण संहित रावण के जीवन और ज्योतिष की बेहतर जानकारियों का भंडार है।
3. दस शतकात्मक अर्कप्रकाश : चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र के चर्चित ग्रंथ।
4. दस पटलात्मक : चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र के चर्चित ग्रंथ।
5. उड्डीशतंत्र : चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र के चर्चित ग्रंथ।
6. कुमारतंत्र चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र के चर्चित ग्रंथ।
7.नाड़ी परीक्षा : चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र के चर्चित ग्रंथ।

कहते हैं कि रावण ने ही:- 
8.अरुण संहिता 
9.अंक प्रकाश 
10.इंद्रजाल 
11.प्राकृत कामधेनु
12.प्राकृत लंकेश्वर
13.रावणीयम 

आदि पुस्तकों की रचना भी की थी।

क्वारंटाइन (सूतक) हमारी हिन्दू संस्कृति में प्राचीन काल से ही चलन में है !!

 


छुआछूत एक सर्वव्यापी और प्राचीनकालीन सत्य है, जिसका बाद में गलत अर्थ भी निकाला जाने लगा। वर्तमान की अपेक्षा प्राचीनकाल में चिकित्सा सुविधाएं इतनी नहीं थी। ऐसे में जब कोई बीमारी या महामारी फैलती थी तो लोग अपने अनुभव का उपयोग करते थे। इसी अनुभव के आधार पर प्राचीनकालीन विद्वानों ने लोगों को बीमारी से बचाने के लिए या संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए धर्म के कुछ नियम बनाएं। उन्हीं कई नियमों में से एक है सूतक और पातक।

1. क्वारंटीन (क्वारंटाइन) : जिस व्यक्ति या परिवार के घर में सूतक-पातक रहता है, उस व्यक्ति और परिवार के सभी सदस्यों को कोई छूता भी नहीं है। वहां का अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता है। वह परिवार भी मंदिर सहित किसी के घर नहीं जाता है और सूतक-पातक के नियमों का पालन करते हुए उतने दिनों तक अपने घर में ही रहता है। परिवार के सदस्यों को सार्वजनिक स्थलों से दूर रहने को बोला जाता है।

2. कब-कब लगता है सूतक : जन्म काल, ग्रहण काल, स्त्री के मासिक धर्म का काल और मरण काल में सूतक और पातक का विचार किया जाता है। सभी के काल में सूतक के दिन और समय का निर्धारण अलग-अलग होता है।

3. क्या होता है सूतक और पातक : सूतक का संबंध जन्म-मरण के कारण हुई अशुद्धि से है। जन्म के अवसर पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया के दौरान जो हिंसा होती है, उसमें लगने वाला दोष या पाप प्रायश्‍चित के रूप में पातक माना जाता है। इस तरह मरण से फैली अशुद्धि से सूतक और दाह संस्कार से हुई हिंसा के दोष या पाप से प्रायश्‍चित स्वरूप पातक माना जाता है।

जिस तरह घर में बच्चे के जन्म के बाद सूतक लगता है उसी तरह गरुड़ पुराण के अनुसार परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु होने पर लगने वाले सूतक को 'पातक' कहते हैं। सूतक और पातक की परीभाषा इससे अलग भी है। जैसे व्यक्ति की मृत्यु होने के पश्चात गोत्रज तथा परिजनों को विशिष्ट कालावधि तक अशुचित्व और अशुद्धि प्राप्त होता है, उसे सूतक कहते हैं। अशुचित्व अर्थात अमंगल और शुद्ध का विपरित अशुद्धि होता है।

जन्म से लेकर मरण तक सूतक और पातक माना जाता है। सूतक का संबंध जन्म के कारण हुई अशुद्धि से है। जन्म के अवसार पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया में अन्य प्रकार की जो हिंसा होती है, उसमें लगने वाला दोष या पाप प्रायश्‍चित के रूप में सूतक माना जाता है। पातक का संबंध मरण के निमित्त हुई अशुद्धि से है। मरण के अवसर पर दाह सांसकार से हुई हिंसा का दोष या पाप प्रायश्‍चित स्वरूप पातक माना जाता है।

4. सूतक-पातक का समय : मृत व्यक्ति के परिजनों को 10 दिन तथा अंत्यक्रिया करने वाले को 12 से 13 दिन (सपिंडीकरण तक) सूतक पालन कड़ाई से करना होता है। मूलत: यह सूतक काल सवा माह तक चलता है। सवा माह तक कोई किसी के घर नहीं जाता है। सवा माह अर्थात 37 से 40 दिन। 40 दिन में नक्षत्र का एक काल पूर्ण हो जाता है। घर में कोई सूतक (बच्चा जन्म हो) या पातक (कोई मर जाय) हो जाय 40 तक का सूतक या पातक लग जाता है।

ऐसा भी कहा जाता है कि सात पीढ़ियों पश्चात 3 दिन का सूतक माना जाता है, लेकिन यह निर्धारित करना कठिन है। मृतक के अन्य परिजन (मामा, भतीजा, बुआ इत्यादि परिजन) कितने दिनों तक सूतक का पालन करें, यह संबंधों पर निर्भर है तथा उसकी जानकारी पंचांग व धर्मशास्त्रों में दी जाती है। लेकिन जिसका संबंध रक्त से है उसे उपर बताए नियमों अनुसार ही चलना होता है।

जन्म के बाद नवजात पीढ़ियों को हुई अशुचिता 3 पीढ़ी तक 10 दिन, 4 पीढ़ी तक 10 दिन, 5 पीढ़ी तक 6 दिन गिनी जाती है। एक रसोई में भोजन करने वालों के पीढ़ी नहीं गिनी जाती है। वहां पूरा 10 दिन तक का सूतक होता है। प्रसूति नवजात की मां को 45 दिन का सूतक रहता है। प्रसूति स्थान 1 माह अशुद्ध माना जाता है। इसीलिए कई लोग अस्पताल से घर आते हैं तो स्नान करते हैं। पुत्री का पीहर में बच्चे का जन्म में 3 दिन का, ससुराल में जन्म दे तो उन्हें 10 दिन का सूतक रहता है।

मरण के अवसर पर दाह संस्कार में इत्यादि में हिंसा होती है। इसमें लगने वाले दोष या पाप के प्रायश्चित के स्वरूप पातक माना जाता है। जिस दिन दाह संस्कार किया जाता है, उस दिन से पातक के दिनों की गणना होती है। न कि मृत्यु के ‍दिन से। अगर किसी घर का सदस्य बाहर है तो जिस दिन उसे सूचना मिलती है उस दिन तक उसके पातक लगता ही है। अगर 12 दिन बाद सूचना मिले तो स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है।

अगर परिवार की किसी स्त्री का गर्भपात हुआ है तो जितने माह का हुआ है उतने दिन का ही पातक माना जाएगा। घर का कोई सदस्य मुनि, साध्वी है उसे जन्म मरण का सूतक नहीं लगता है। किंतु उसका ही मरण हो जाने पर उसका एक दिन का पातक लगता है।

किसी की शवयात्रा में जाने को एक दिन, मुर्दा छूने को 3 दिन और मुर्दे को कन्धा देने वाले को 8 दिन की अशुद्धि मानी जाती है। घर में कोई आत्मघात करले तो 6 माह का पातक माना जाता है। छह माह तक वहां भोजन और जल ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह मंदिर नहीं जाता और ना ही उस घर का द्रव्य मंदिर में चढ़ाया जाता है।

इसी तरह घर के पालतू गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी इत्यादि को घर में बच्चा होने पर 1 दिन का सूतक परंतु घर से दूर-बाहर जन्म होने पर कोई सूतक नहीं रहता। बच्चा देने वाली गाय, भैंस और बकरी का दूध, क्रमशः 15 दिन, 10 दिन और 8 दिन तक अशुद्ध रहता है।

5. सूतक-पातक के नियम : सूतक और पातक में अन्य व्यक्तियों को स्पर्श न करें। कोई भी धर्मकृत्य अथवा मांगलिक कार्य न करें तथा सामाजिक कार्य में भी सहभागी न हों। अन्यों की पंगत में भोजन न करें। किसी के घर न जाएं और ना ही किसी भी प्रकार का भ्रमण करें। घर में ही रहकर नियमों का पालन करें।

किसी का जन्म हुआ है तो शुद्धि का ध्यान रखते हुए भगवान का भजन करें और यदि कोई मर गया है तो गरुढ़ पुराण सुनकर समय गुजारें। सूतक या पातक काल समाप्त होने पर स्नान तथा पंचगव्य (गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर का मिश्रण) सेवन कर शुद्ध हो जाएं। सूतक पातक की अवधि में देव शास्त्र गुरु, पूजन प्राक्षाल, आहार आदि धार्मिक क्रियाएं वर्जित होती है।

6. ग्रहण का सूतक : ग्रहण और सूतक के पहले यदि खाना तैयार कर लिया गया है तो खाने-पीने की सामग्री में तुलसी के पत्ते डालकर खाद्य सामग्री को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। ग्रहण के दौरान मंदिरों के पट बंद रखे जाते हैं। देव प्रतिमाओं को भी ढंककर रखा जाता है। ग्रहण के दौरान पूजन या स्पर्श का निषेध है। केवल मंत्र जाप का विधान है। ग्रहण के दौरान यज्ञ कर्म सहित सभी तरह के अग्निकर्म करने की मनाही होती है। ऐसा माना जाता है कि इससे अग्निदेव रुष्ट हो जाते हैं।

7. वैज्ञानिक आधार :- 'सूतक' और 'पातक' सिर्फ धार्मिक कर्मंकांड नहीं है। जब परिवार में बच्चे का जन्म होता है या किसी सदस्य की मृत्यु होती है उस अवस्था में संक्रमण फैलने की संभावना काफी ज्यादा होती है। ऐसे में अस्पताल या शमशान या घर में नए सदस्य के आगमन, किसी सदस्य की अंतिम विदाई के बाद घर में संक्रमण का रोकने के लिए ही सूतक और पातक के नियमों का पालन किया जाता है।

इन नियमों से ही घर और शरीर की शुद्धी की जाती है। जब 'सूतक' और 'पातक' की अवधि समाप्त हो जाती है तो घर में हवन कर वातावरण को शुद्ध किया जाता है। उसके बाद परम पिता परमेश्वर से नई शुरूआत के लिए प्रार्थना की जाती है।

बच्चा पैदा होने के बाद महिला के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। साथ ही, अन्य रोगों के संक्रमण के दायरे में आने के मौके बढ़ जाते हैं। इसलिए 10-40 दिनों के लिए महिला को बाहरी लोगों से दूरी बना कर रखा जाता है। जैसे ही बच्चा संसार के वातावरण में आता है तो कुछ बच्चों को बीमारियां जकड़ लेती हैं। शारीरिक कमजोरियां बढ़ने लगती है और कभी कभी बच्चों को डॉक्टर इंक्यूबेटर पर रखते हैं जिससे वो बाहरी प्रदूषित वातावरण से बचाया जा सके।

इसी ‍तरह यदि आप किसी के अंतिम संस्कार में गए हैं तो नहाना जरूर है। किसीकी मृत्यु के पीछे कई कारण हो सकते है जैसे कोई लंबी सांस की बीमारी या शुगर की समस्या या फिर किसी एक्सिडेंट के चलते मृत्यु हो जाना। कारणों की फेहरिस्त कम नहीं है लेकिन मसला ये है कि ये सारे कारण आपके शरीर में संक्रमण के जरिए आ सकते हैं और आपको भी रोगी बना सकते हैं। कभी कभी देखा गया है कि कोई आदमी दाह संस्कार के बाद बीमार पड़ जाता है क्योंकि वहां के कीटाणु उसके घर तक रास्ता बना लेते हैं इसलिए हमेशा बच्चे, बूढ़े और महिलाओं को अतिरिक्त सावधानी रखने की सलाह दी जाती है। इसीलिए घर के सभी सदस्य अपना मुंडन कराते हैं।

कभी कभी जब परिवार में सारी प्रक्रियाओं का अनुसरण होने पर भी संक्रमण की संभावनाएं बरकरार रहती है इसलिए अंतिम शस्त्र के रूप में हवन किया जाता है। हवन होने के बाद घर का वातावरण शुद्ध हो जाता है और पातक प्रक्रिया की मीयाद भी पूरी हो जाती है।

Sunday, 25 April 2021

हनुमान चालीसा से जुड़ा है हमारा स्वास्थ्य, उच्चारण से बढ़ता है आध्यात्मि बल, आत्मिक बल और मनोबल !!


 
लॉकडाउन के चलते वर्तमान समय में लोगों के मन में शंका, भय, निराशा, अनिश्‍चितता, क्रोध और कई तरह की मानसिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। चिकित्सा विज्ञान कहता है कि भय और क्रोध हमारे इम्यून सिस्टम को प्रभावित करता है। इम्यून सिस्टम का संतुलन बिगड़ने से जल्दी से रोग लग जाता है। ऐसे में किस तरह हनुमान चालीसा का पाठ आपका फायदा कर सकता है, जानिए सेहत के 10 रहस्य।

1. आध्यात्मिक बल : कहते हैं कि आध्यात्मिक बल से ही आत्मिक बल प्राप्त होता है और आत्मिक बल से ही हम शारीरिक बल प्राप्त करके हर तरह के रोग से लड़कर उस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करने से मन और मस्तिष्क में आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है। हनुमान जी को बल, बुद्धि और विद्या के दाता कहा जाता है, इसलिए हनुमान चालीसा का प्रतिदिन पाठ करना आपकी स्मरण शक्ति और बुद्ध‍ि में वृद्ध‍ि करता है। साथ ही आत्मिक बल भी मिलता है।

2. मनोबल बढ़ाती है हनुमान चालीसा : नित्य हनुमान चालीसा पढ़ने से पवि‍त्रता की भावना का विकास होना है हमारा मनोबल बढ़ता है। उल्लेखनीय है कि जनता कर्फ्यू के दौरान घंटी या ताली बजाना या लॉकडाउन के दौरान दीप जलाना, रोशनी करना यह सभी व्यक्ति के निराश के अंधेरे से निकालकर मनोबल को बढ़ाने वाले ही उपाय थे। मनोबल ऊंचा रहेगा तो सभी संकटों से निजात मिलेगी। हनुमान चालीसा की एक पंक्ति हैं- अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, असवर दिन जानकी माता।

3. अकारण भय व तनाव मिटता : हनुमान चालीसा में एक पंक्ति है- भूत पिशाच निकट नहीं आवे महावीर जब नाम सुनावे। या सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना। यह चौपाई मन में अकारण भय हो तो समाप्त कर देती है। हनुमान चालीसा का पाठ आपको भय और तनाव से छुटकारा दिलाने में बेहद कारगर है।

4. हर तरह का रोग मिटता : हनुमान चालीसा में एक पंक्ति है- नासै रोग हरे सब पीरा, जपत निरन्तर हनुमत बीरा। या बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार। अर्थात किसी भी प्रकार का रोग हो आप बस श्रद्धापूर्वक हनुमानजी का जाप करते रहे। हनुमान जी आपकी पीड़ा हर लेंगे। कैसे भी कलेस हो अर्थात कष्ट हो, वह सम्पात हो जाएगा। श्रद्धा और विश्वास की ताकत होती है। मतलब यह कि दवा के साथ दुआ भी करें। हनुमान जी की कृपा से शरीर की समस्त पीड़ाओं से आपको मुक्ति मिल जाएगी।

5.हर तरह का संकट मिटता : आप किसी भी प्रकार का शारीरिक संकट या मानसिक संकट आया हो या प्राणों पर यदि संकट आ गया हो तो यह पंक्ति पढ़ें- संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। या संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै। यह आपके भीतर नए सिरे से आशा का संचार कर देगी।

6. बंधन मुक्ति का उपाय : कहते हैं कि यदि आप नित्य 100 बार हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं तो हर तरह के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। वह बंधन भले ही किसी रोग का हो या किसी शोक का हो। हनुमान चालीसा में ही लिखा है- जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बन्दि महा सुख होई। सत अर्थात सौ।

7. नकारात्माक प्रभाव होते हैं दूर : मान्यता के अनुसार निरंतर हनुमान चालीसा पढ़ने से हमारे घर, मन और शरीर से नकारात्मक ऊर्जा का निष्कासन हो जाता है। निरोगी और निश्चिंत रहने के लिए जीवन में सकारात्मकता की जरूरत होती है। सकारात्मक ऊर्जा व्यक्ति को दीर्घजीवी बनाती है।

8. ग्रहों के प्रभाव होते हैं दूर : ज्योतिषियों के अनुसार प्रत्येक ग्रह का शरीर पर भिन्न भिन्न असर होता है। जब उसका बुरे असर होता है तो उस ग्रह से संबंधित रोग होते हैं। जैसे सूर्य के कारण धड़कन का कम-ज्यादा होना, शरीर का अकड़ जाना, शनि के कारण फेफड़े का सिकुड़ना, सांस लेने में तकलीफ होना, चंद्र के कारण मनसिक रोग आदि। इसी तरह सभी ग्रहों से रोग उत्पन्न होते हैं। यदि पवित्र रहकर नियमपूर्वक हनुमान चालीसा पढ़ी जाए तो ग्रहों के बुरे प्रभाव से मुक्ति मिलती है।

9. घर का कलह मिटता है : यदि परिवार में किसी भी प्रकार की कलह है तो कुछ समय बाद परिवार के सदस्य तनाव में रहने लगेंगे और धीरे धीरे उन्होंने शारीरिक और मानसिक रोग घेर लेंगे। नित्य हनुमान चालीसा का पाठ करने से मन में शांति स्‍थापना होती है। कलह मिटता है और घर में खुशनुमा माहौल निर्मित होता है।

10. बुराइयों से दूर करती है हनुमान चालीसा : यदि आप नित्य हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं तो निश्‍चित ही आप धीरे धीरे स्वत: ही तरह तरह की बुराइयों से दूर होते जाएंगे। जैसे कुसंगत में रहकर नशा करना, पराई स्त्री पर नजर रखना और क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, मद, काम जैसे मानसिक विकार को पालन। जब व्यक्ति तरह की बुराइयों से दूर रहता है तो धीरे-धीरे उसकी मानसिक और शारीरिक सेहत सुधरने लगती है।

पुनश्च : नित्य हनुमान चालीसा बढ़ने से आपमें आध्यात्मि बल, आत्मिक बल और मनोबल बढ़ता है। इसे पवित्रता की भावना महसूस होती है। शरीर में हल्कापन लगता है और व्यक्ति खुद को निरोगी महसूस करता है। इससे भय, तनाव और असुरक्षा की भावना हट जाती है। जीवन में यही सब रोग और शोक से मुक्त होने के लिए जरूरी है।

क्या आप जानते है हिन्दू धर्म के संस्थापक कोन है, आइये जानते है !!

 


संपूर्ण विश्व में पहले वैदिक धर्म ही था। फिर इस धर्म की दुर्गती होने लगी। लोगों और तथाकथित संतों ने मतभिन्नता को जन्म दिया और इस तरह एक ही धर्म के लोग कई जातियों व उप-जातियों में बंट गए। ये जातिवादी लोग ऐसे थे जो जो वेद, वेदांत और परमात्मा में कोई आस्था-विश्वास नहीं रखते थे। इसमें से एक वर्ग स्वयं को वैदिक धर्म का अनुयायी और आर्य कहता था तो दूसरा जादू-टोने में विश्वास रखने वाला और प्रकृति तत्वों की पूजा करने वाला था। दोनों ही वर्ग भ्रम और भटकाव में जी रहे थे क्योंकि असल में उनका वैदिक धर्म से कोई वास्ता नहीं था। कहते हैं कि श्रीकृष्ण के काल में ऐसे 72 से अधिक अवैदिक समुदाय दुनिया में मौजूद थे। ऐसे में श्रीकृष्ण ने सभी को एक किया और फिर से वैदिक सनातन धर्म की स्थापना की।

'यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥'

आज हिन्दू धर्म की हालत यह है कि हर संत का अपना एक धर्म और हर जाति का अपना अलग धर्म है। लोग भ्रम और भटकाव में जी रहे हैं। वेदों को छोड़कर संत, ज्योतिष और अन्य लोग दूसरे या मनमाने धर्म के समर्थक बन गए हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि हिन्दू धर्म का कोई संस्थापक नहीं। इस धर्म की शुरुआत का कुछ अता-पता नहीं। हालांकि धर्म के जानकारों अनुसार वर्तमान में जारी इस धर्म की शुरुआत प्रथम मनु स्वायम्भुव मनु के मन्वन्तर से हुई थी।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित अग्नि, आदित्य, वायु और अंगिरा ने इस धर्म की स्थापना की। क्रमश: कहे तो विष्णु से ब्रह्मा, ब्रह्मा से 11 रुद्र, 11 प्रजापतियों और स्वायंभुव मनु के माध्यम से इस धर्म की स्थापना हुई। इसके बाद इस धा‍र्मिक ज्ञान की शिव के सात शिष्यों से अलग-अलग शाखाओं का निर्माण हुआ। वेद और मनु सभी धर्मों का मूल है। मनु के बाद कई संदेशवाहक आते गए और इस ज्ञान को अपने-अपने तरीके से लोगों तक पहुंचाया।

लगभग 90 हजार से भी अधिक वर्षों की परंपरा से यह ज्ञान श्रीकृष्ण और गौतम बुद्ध तक पहुंचा। यदि कोई पूछे- कौन है हिन्दू धर्म का संस्थापक तो कहना चाहिए ब्रह्मा है प्रथम और श्रीकृष्ण-बुद्ध हैं अंतिम। जो पूछते हैं उन्हें कहो कि...अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने हिंदू धर्म की स्थापना की। यह किसी पदार्थ नहीं ऋषियों के नाम हैं।

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु : समलक्षणम्॥- मनु स्मृति

जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।-मनु स्मृति

आदि सृष्टि में अवान्तर प्रलय के पश्चात् ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु ने धर्म का उपदेश दिया। मनु ने ब्रह्मा से शिक्षा पाकर भृगु, मरीचि आदि ऋषियों को वेद की शिक्षा दी। इस वाचिक परम्परा के वर्णन का पर्याप्‍त भाग मनुस्मृति में यथार्थरूप में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अग्नि, वायु एवं सूर्य ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद को प्राप्त किया।

प्राचीनकाल में ऋग्वेद ही था फिर ऋग्‍वेद के बाद यजुर्वेद व सामवेद की शुरुआत हुई। बहुत काल तक यह तीन वेद ही थे। इन्हें वेदत्रयी कहा जाने लगा। मान्यता अनुसार इन तीनों के ज्ञान का संकलन भगवान राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था।

अथर्ववेद के संबंध में मनुस्मृति के अनुसार- इसका ज्ञान सबसे पहले महर्षि अंगिरा को हुआ। बाद में अंगिरा द्वारा सुने गए अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा कि‍या गया। इस तरह हिन्दू धर्म दो भागों में बंट गया एक वे जो ऋग्वेद को मानते थे और दूसरे वे जो अथर्ववेद को मानते थे। इस तरह चार किताबों का अवतरण हुआ।

कृष्ण के समय महर्षि पराशर के पुत्र कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) ने वेद को चार प्रभागों में संपादित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। कृष्ण द्वैपायन को ही वेद व्यास कहा जाता है।

गीता में श्रीकृष्ण के माध्यम से परमेश्वर कहते हैं कि 'मैंने इस अविनाशी ज्ञान को आदित्य से कहा, आदित्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग ज्ञान को राजर्षियों ने जाना।

परमेश्वर से प्राप्त यह ज्ञान ब्रह्मा ने 11 प्रजापतियों, 11 रुद्रों और अपने ही स्वरूप स्वायंभुव मनु और सतरूपा को दिया। स्वायंभुव मनु ने इस ज्ञान को अपने पुत्रों को दिया फिर क्रमश: स्वरोचिष, औत्तमी, तामस मनु, रैवत, चाक्षुष और फिर वैवश्वत मनु को यह ज्ञान परंपरा से मिला। अंत में यह ज्ञान गीता के रूप में भगवान कृष्ण को मिला। अभी वराह कल्प में सातवें मनु वैवस्वत मनु का मन्वन्तर चल रहा है।

ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। इस तरह वेद सुनने और वेद संभालने वाले ऋषि और मनु ही हिन्दू धर्म के संस्थापक हैं।

क्या आप जानते है हिन्दू धर्म का वो रहस्य जो बनाता है हमे सबसे ताकतवर !!

 


पिछले लगभग 20 हजार वर्षों से हिन्दू धर्म विद्यमान हैं। हो सकता है कि इससे भी ज्यादा वर्ष हो गए हो, लेकिन ब्रह्मा से लेकर राम तक लगभग 400 पीढ़ियां बीत चुकी है और भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था। कुश से अब तक कुल 309 पीढ़ियां हो चुकी है।

जयपुर राजघरा की महारानी पद्मिनी और उनके परिवार के लोग की राम के पुत्र कुश के वंशज है। महारानी पद्मिनी ने एक अंग्रेजी चैनल को दिए में कहा था कि उनके पति भवानी सिंह कुश के 309वें वंशज थे। इस मान से कुल 709 पीढ़ियों से हिन्दू धर्म प्रचलन में हैं। जिस तरह हमें राम के पूर्वजों के बारे में बताया उसी तरह चंद्रवंशी, अग्निवंशी, ऋषिवंश, पुलस्त्य, पुलह एवं क्रतुवंश, ययातिवंश, गर्गवंश, चित्रगुप्तवंश आदि अनेक वंशों की भी 700 से ज्यादा पीढ़ियां गुजर चुकी है। 

इसमें सोचने वाली बात यह है कि एक हजार वर्ष पहले लोगों की उम्र 100 वर्ष से ज्यादा होती थी। खैर...बहुत से लोग हिन्दू धर्म को मूर्तिपूजकों, बहुदेववादी, अनेकेश्वरवादी या सर्वेश्वरवादियों का धर्म मानते हैं जो कि उनके अल्पज्ञान को प्रदर्शित करता है। वे इस धर्म को विरोधाभासी, बहुत सारी किताबों का धर्म भी मानते हैं। वे पुराणों को अप्रमाणिक मानकर इसकी सत्यता की भी प्रश्न उठाते हैं। दरअसल, हिन्दू धर्म को आसानी से समझा नहीं जा सकता क्योंकि यह उन धर्मों की तरह नहीं है जिन्होंने कि धर्म को एक सामाजिक और कानूनी ढांचे में ढालकर धर्म की हर बात को श्रेणिबद्ध कर दिया और धर्म को धर्म की बजाए एक व्यवस्था ज्यादा बना दिया है। हिन्दू धर्म क्या है यह चार उदहारण से समझ सकते हैं। फिर आप जानेंगे कि हिन्दू धर्म की ताकत क्या है...

1.एक जंगल है जिसमें नदी, झील, तालाब, पहाड़ और झरनों के बीच कई तरह के पेड़-पौधे, तरह-तरह के फूल, कई प्रजातियों के पशु-पक्षी, जीव-जंतु आदि अनेक प्रजातियां हैं जो कि भिन्नता और विचित्रता लिए हुए हैं। कई रास्ते हैं। आप किसी भी रास्ते से जाकर किसी भी अन्य रास्ते से जंगल से बाहर निकल सकते हैं। आपको भटकने की पूरी छूट है।

2.दूसरी ओर एक चिढ़ियाघर है, जहां कुछ खास किस्म के ही पेड़-पौधे हैं और हर तरह के पशु-पक्षियों को एक पिंजरे में रखा गया है। वहां नदी और पहाड़ नहीं है। नकली झरने बनाए गए हैं। छोड़ी-सी पतली-सी निर्धारित सड़क है। उस पर चलकर सभी को दूसरे प्रवेश द्वार से बाहर निकलना है।

3.एक सुंदर-सा बगीचा है। उस बगीचे में तरह-तरह के पेड़-पौधे और फल-फूल लगाए हैं। छोटा-सा तालाब और नकली झरना है। वहां किसी भी प्रकार के पशु या प्राणी नहीं है लेकिन पक्षी जरूर हैं। छोड़ी-सी पतली-सी निर्धारित सड़क है। उस पर चलकर सभी को दूसरे प्रवेश द्वार से बाहर निकलना है।

4.एक बगीचा है जिसमें सिर्फ एक ही तरह के फूल उगे हुए हैं। न झरना है, न तालाब और न ही अन्य तरह के पेड़-पौधे। बस एक ही तरह के फूलों को लाइन से उगा रखा है। आप उन्हें छू नहीं सकते। आपको अनुशासन में रहकर एक निर्धारित रास्ते पर चलकर चुपचाप दूसरे द्वार से बाहर निकल जाना है।


अब आप सोचिए कि आप कहां घूमना पसंद करेंगे? दरअसल, हिन्दू धर्म उस जंगल की तरह है जहां आपके लिए सबकुछ है और जहां घुमने के लिए आप पूर्णरूप से स्वतंत्र हो। आप किसी भी रास्ते से जाकर अपनी मंजिल पर पहुंच सकते हो। भिन्नता और विरोधाभाष ही जीवन का महत्वपूर्ण रहस्य और रोमांच है। जीवन में हर तरह के रंग होना चाहिए। अब हम देखते हैं कि हिन्दू धर्म की ताकत क्या है।

1.ध्यान और योग - हिन्दू धर्म में जागरण, ज्ञान, योग, स्तुति, ध्यान, तप, जप, संकल्प और समर्पण इन नौ को सबसे बड़ा माना गया है। इस पर चलकर ही आप सिद्धि या मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यदि आपकी रुचि सिद्धि या मोक्ष में नहीं है तो इसके माध्यम से आप स्वस्थ रह सकते हैं और आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

2.रहस्य और रोमांच - हिन्दू धर्म में रहस्य को महत्व दिया गया है। जीवन में यदि रहस्य नहीं है तो रोमांच और उत्साह भी नहीं रहेगा। हर वक्त किसी बात की खोज करना ही रोमांच है। इसीलिए हिन्दू धर्म एक रहस्यवादी धर्म है। जीवन, आत्मा, पुनर्जन्म, परमात्मा और यह ब्रह्मांड एक रहस्य ही है। इस रहस्य को जानने का रोमांच मनुष्‍य में आदि काल से ही रहा है। जिस मनुष्य की इस रहस्य को जानने में रुचि नहीं है वह पशुवत समान ही है। जीवन समझो व्यर्थ ही गया। हिन्दू धर्म मानता है कि मनुष्य का जन्म खुद को जानने के लिए ही हुआ है।

3.स्व-अनुशासन और स्वतंत्रता - हिन्दू धर्म में स्व-अनुशासन को बहुत महत्व दिया गया है। यह आपकी और दूसरों की स्वतंत्रका को कायम रखने और धर्म, देश एवं समाज को व्यवस्थित रखने के लिए जरूरी है। यदि देश के नागरिकों में स्व-अनुशासन नहीं है तो वह देश नहीं बल्की एक भीड़ है जिसे कोई भी कभी भी किसी भी तरीके से संचालित कर सकता है।

हिन्दू धर्म 'व्यक्ति स्वतंत्रता' को महत्व देता है, जबकि दूसरे धर्मों में सामाजिक बंधन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागू हैं। हिन्दू धर्म मानता है कि व्यक्ति स्वतंत्रता से ही व्यक्ति की आत्मा का विकास होता है। यही कारण रहा कि हिन्दुओं में हजारों वैज्ञानिक, समाज सुधारक और दार्शनिक हुए जिन्होंने धर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। लेकिन इस स्वतंत्रता का यदि दुरुपयोग हो रहा है या दूसरों की स्वतंत्रता का हनन किया जा रहा है तो ऐसे व्यक्ति को दंड देना जरूरी है। इसीलिए स्व-अनुशासन, सह-अस्तित्व और स्वीकार्यता पर जोर दिया गया है।

4.तत्व ज्ञान और दर्शन- हिन्दू धर्म में क्या है यह जानने के लिए धर्म के तत्व ज्ञान को जानना जरूरी है। तत्व ज्ञान हमें ईश्‍वर, आत्मा, ब्रह्मांड, पुनर्जन्म और कर्मों का सिद्धांत के बारे में सही-सही जानकारी देकर हमारी सोच को विकसित करता है। वेदों में तत्व ज्ञान की बाते कही गई है। वेदों के अलाव उपनिषद और गीता में तत्व ज्ञान को बताया गया है। उक्त तीन ही हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ है।

तत्व ज्ञान दर्शन का ही एक अंग है। वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। इसे भारत का षड्दर्शन कहते हैं। ये छह है-
  1. न्याय
  2. वैशेषिक
  3. सांख्य
  4. योग
  5. मीमांसा
  6. वेदांत 
इसके अलावा वेदों के अंग हैं- 
  1. शिक्षा
  2. छंद
  3. व्याकरण
  4. निरुक्त
  5. ज्योतिष
  6. कल्प

इसके अलावा उपवेद हैं- ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्य वेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं। उक्त सभी को जान लिया तो हिन्दू धर्म को जा लिया समझो।

5.संस्कार और कर्तव्य- हिन्दू धर्म ने मनुष्य की हर हरकत को वैज्ञानिक नियम में बांधा है। यह नियम सभ्य समाज की पहचान है। इसके लिए प्रमुख कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जिसको अपनाकर जीवन को सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है। जैसे :- 
  1. संध्यावंदन (वैदिक प्रार्थना और ध्यान)
  2. तीर्थ (चारधाम)
  3. दान (अन्न, वस्त्र और धन)
  4. व्रत (श्रावण मास, एकादशी, प्रदोष)
  5. पर्व (शिवरात्रि, नवरात्रि, मकर संक्रांति, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और कुंभ), 
  6. संस्कार (16 संस्कार), 7.पंच यज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ-श्राद्धकर्म, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ)
  7. देश-धर्म सेवा
  8. वेद-गीता पाठ
  9. ईश्वर प्राणिधान (एक ईश्‍वर के प्रति समर्पण)।

उपरोक्त सभी कार्यों से जीवन में एक अनुशासन और समरसता का विकास होता है। इससे जीवन सफल, सेहतमंद, शांतिमय और समृद्धिपूर्ण बनता है अत: हिन्दू धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है। इसीलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

6.चार पुरुषार्थ ही लक्ष्य है-
  1. धर्म
  2. अर्थ
  3. काम
  4. मोक्ष 
उक्त चार को दो भागों में विभक्त किया है- पहला धर्म और अर्थ। दूसरा काम और मोक्ष। काम का अर्थ है- सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख-दुख और बंधनों से मुक्ति। इन दो पुरुषार्थ काम और मोक्ष के साधन है- अर्थ और धर्म। अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है।

7.प्रकृति से निकटता- अक्सर हिन्दू धर्म की इस बात के लिए आलोचना होती है कि यह प्रकृ‍ति पूजकों का धर्म है। ईश्वर को छोड़कर ग्रह और नक्षत्रों की पूजा करता है। यह तो जाहिलानापन है। दरअसल, हिन्दू मानते हैं कि कंकर-कंकर में शंकर है अर्थात प्रत्येक कण में ईश्वर है। इसका यह मतलब नहीं कि प्रत्येक कण को पूजा जाए। इसका यह मतलब है कि प्रत्येक कण में जीवन है। वृक्ष भी सांस लेते हैं और लताएं भी। दरअसल, जो दिखाई दे रहा है पहला सत्य तो वही है। प्रत्येक व्यक्ति करोड़ों मिल दूर दिखाई दे रहे उस टिमटिमाते तारे से जुड़ा हुआ है इसलिए क्योंकि उसे दिखाई दे रहा है। दिखाई देने का अर्थ है कि उसका प्रकाश आपकी आंखों तक पहुंच रहा है। हमारे वैदिक ऋषियों ने कुदरत के रहस्य को अच्छे से समझा है। वे कहते हैं कि प्रकृति ईश्वर की अनुपम कृति है। प्रकृति से मांगो तो निश्चित ही मिलेगा।

8.उत्सवप्रियता-
हिन्दू धर्म उत्सवों को महत्व देता है। जीवन में उत्साह और उत्सव होना जरूरी है। ईश्वर ने मनुष्य को ही खुलकर हंसने, उत्सव मनाने, मनोरंजन करने और खेलने की योग्यता दी है। यही कारण है कि सभी हिन्दू त्योहारों और संस्कारों में संयमित और संस्कारबद्ध रहकर नृत्य, संगीत और पकवानों का अच्छे से सामंजस्य बैठाते हुए समावेश किया गया है। उत्सव से जीवन में सकारात्मकता, मिलनसारिता और अनुभवों का विस्तार होता है।

अंत में- तत्व ज्ञान और दर्शन ही हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी ताकत है जिसके आधार पर संपूर्ण धर्म खड़ा है।